कहीं सत्ता की लपलपाती आकांक्षा ने तो नहीं निगल ली एक और ज़िंदगी!

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किसी का भी यूं जाना दुःखद है और एक सैनिक का जाना तो और भी दुःखद.

दिल्ली पुलिस ने इस मामले को जिस ढंग से हैंडल करने की कोशिश की उससे कुछ गिद्धों को लाशों पर सियासत करने का एक और मौका मिला.

व्यवस्था और पारदर्शी हो तथा सरकारें अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील रहें, यह बेहद ज़रूरी है. सैनिकों के प्रति यह संवेदना और भी गहरी होनी चाहिए.

वर्तमान सरकार अपनी तमाम नेकनीयती के बावज़ूद इस मुद्दे पर जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठे पूर्व सैनिकों से संवाद साधने में विफल रही.

पर कहीं गहरे में कुछ और सवाल भी खड़े होते हैं कि कहीं यह आत्महत्या, हत्या तो नहीं है?

क्या कोई पुत्र अपने पिता के जहर खाने की बात को भी इतने धैर्य और सहनशीलता से सुन सकता है?

क्या उसे भागकर उनकी मदद करने नहीं जाना चाहिए था? उसे इसी इत्मीनान से अपने पिता के जहर खाने की बातों में रस लेना चाहिए था?

क्या कोई पुत्र अपने पिता के मरने की खबर की ऑडियो बना सकता है? क्या जहर खाने के बाद व्यक्ति इतनी दार्शनिक और तकनीकी बातें करता है?

क्या जहर खाने के बाद उनके साथ के किसी व्यक्ति को उन्हें बचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी? क्या इस हत्या के पीछे पैसों के लेन-देन जैसी वजहें भी हो सकती हैं?

क्या यह सत्य नहीं है कि पिता-पुत्र की बातचीत में पुत्र की अपने पिता के प्रति न्यूनतम स्तर की संवेदना भी नहीं दिखाई देती?

जिस घटना पर पूरे देश की मीडिया और राजनीतिक पार्टी की नज़र हो, उसमें यह कहना कि पुलिस ने आत्महत्या करने वाले पूर्व सैनिक के बेटे के साथ मारपीट की, कितनी विश्वसनीय लगती है?

फिर उनसे यह सब कौन कहलवा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता की लपलपाती आकांक्षा ने एक और ज़िन्दगी लील ली?

इससे पूर्व कि आप मेरी संवेदनाओं पर सवाल खड़े करें, मैं ध्यान दिलाना चाहूँगा कि इससे पूर्व भी अपनी राजनीति चमकाने के लिए ये गिद्ध एक निर्दोष-गरीब किसान गजेन्द्र की बलि ले चुके हैं.

इस मुद्दे पर सरकार से सवाल वे कर रहे हैं जिन्होंने 60 साल तक OROP के मसले को ठंडे बस्ते में डाले रखा.

क्या इनकी छटपटाहट यह नहीं दर्शाती कि पंजाब और उत्तर-प्रदेश के आसन्न चुनावों में मोदी सरकार को घेरने के लिए किसी ठोस मुद्दे के अभाव में ये ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थे?

क्यों चुनाव से ठीक पूर्व ही कभी रोहित वेमुला, कभी अखलाक, कभी कथित असहिष्णुता पर अवॉर्ड वापसी जैसा मुद्दा सामने आता है?

पिछले दिनों दसियों सैनिक पाकिस्तानी गोलीबारी में शहीद हुए क्या इनमें से कोई नेता उनके घर उनके प्रति सहानुभूति जताने गए?

कुरुक्षेत्र के शहीद मंदीप सिंह को तो बड़ी बेरहमी और बर्बरता के साथ मारा गया था, इनमें से कितने नेता उनके घर गए? कुरुक्षेत्र तो दिल्ली से अधिक दूर भी नहीं!

यदि स्वर्गीय रामकिशन रक्षा मंत्री को ज्ञापन देना चाहते थे तो किसने उन्हें रोका, किसने उन्हें रास्ते में ही रोककर जहर दिया, ये सभी गहन जाँच के विषय हैं और मामले को संदिग्ध बनाते हैं. इसलिए फौरी तौर पर किसी फैसले पर पहुँचना जल्दबाज़ी होगी.

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