एक महिला ने एक कमेंट में दीवाली के पटाखों से मरी एक गौरैया का चित्र पोस्ट किया तो मुझे अपना बचपन याद आ गया.
बचपन में घर में और आसपास हर तरफ हज़ारों गौरैया देखने मिलती थी. घर में घुस आती थी… बिलकुल सामने फुदकते रहती थी. बरामदे में बैठ कर चावल चुनते थे तो उसमें मुँह मारने आ जाया करती थी.
बहुत साल हो गए, गौरैया नहीं देखी. अब नहीं दिखाई देती. पता नहीं क्या हुआ… मुझे ना तो जीव विज्ञान इतना समझ में आता है, न पर्यावरण विज्ञान. मैडम की मानें तो सारी गौरैया दीवाली के पटाखों से मर गयीं.
जब हम बच्चे थे तो दीवाली के पटाखे इतने जहरीले नहीं हुआ करते थे. उनसे चिड़िया नहीं मरा करती थी. कुछ हुआ है पिछले कुछ वर्षों में…
दीवाली के पटाखे एकाएक जहरीले हो गए हैं… होली के रंग भी जहरीले हो गए हैं. होली से पानी की कमी होने लग गयी है.
करवा चौथ, तीज के व्रतों से, यहाँ तक कि रक्षा बंधन तक से महिलाओं का शोषण होने लग गया है.
रामनवमी के जुलूसों से गुंडागर्दी, दुर्गा पूजा के माइक से शोर होने लग गया है… बर्दाश्त से बाहर हो गया है.
वे कौन हैं जो दीवाली की रौशनी में, होली के रंगों में ज़हर घोल रहे हैं? वे कौन हैं जो कल तक पर्यावरण के चिंतक थे, आज भोपाल में मानवाधिकारों के हिमायती हो गए हैं.
ज़रा क्रिसमस का पवित्र पर्व और न्यू ईयर की धूमधाम बीत जाये तो फिर से होली में पानी की कमी सताने लग जाएगी…
शिवरात्रि में दूध के लिए बिलखते बच्चे याद आएंगे… पति की सताई ज़बरदस्ती उपवास रखने को मजबूर हिन्दू स्त्रियों के अधिकारों का हनन उनकी नींद उड़ा देगा…
और कहीं भी कोई भी आतंकवादी मारा जायेगा तो मानवाधिकार का झंडा तो सदाबहार लहराता ही है.
वे कौन से लोग हैं? उनकी चिंताएं क्या हैं, कितनी हैं? उनके सामाजिक सरोकार, उनकी प्रतिबद्धताएं रोज रोज बदलती क्यों रहती हैं. और एक हिन्दू त्यौहार बीतते ही उनकी चिंताएं बदल क्यों जाती हैं.
कल तक पर्यावरण का दुःख सता रहा था, तो आज सडकों पर जाम लगाती महँगी भारी भरकम एसी कारों में घूमते वक़्त वह दुःख कहाँ चला गया?
शिवरात्रि पर बच्चों के दूध के लिए रोते नरमदिल लोग आपको साल भर कहीं भी किसी बच्चे को रोटी खिलाते क्यों नज़र नहीं आते?
रेस्टोरेंट में मुर्गे की बोटी तोड़ते हुए एक चिड़िया का दर्द क्यों दिखाई नहीं देता… क्यों उन्हें गाय प्रोटीन का सोर्स दिखाई देती है और पटाखे से डरी हुई कुतिया पर वात्सल्य उमड़ पड़ता है?
उनकी समस्या हम हैं… हमारा अस्तित्व है. हमारे हर काम से प्रदूषण होता है. हम बोलते हैं तो शोर होता है. हमारे होने से भीड़ होती है.
हम साँस लेते हैं तो हवा से पूरा ऑक्सीजन सोख लेते हैं. दुनिया से प्रदूषण दूर करने का एक ही फाइनल तरीका है… हमारी सांसें रोक दी जाएं…
अब हमें सोचना है, हम अपने अस्तित्व की चिंता करें, या पर्यावरण की इस सालाना चिंता के भागीदार बनें.
नहीं तो, दीवाली के पटाखे और होली के रंग दिन पर दिन और ज़हरीले ही होते जायेंगे.