कैमेरा बफ़ : सच्चाई कला का उत्स नहीं, एक ख़ूबसूरत छलावरण ही है उसका अभीष्ट

क्रिश्तॉफ़ किस्लोव्स्की की फिल्म “कैमेरा बफ़” (1979).

इस फिल्म की कहानी कुल जमा इतनी है कि पोलैंड के एक छोटे-से क़स्बे विलिश में रहने वाले फिलिप मोश के यहां बेटी जन्म लेती है. उसकी तमाम हरकतों को दर्ज करने के लिए वह एक मूवी कैमरा ख़रीद लाता है.

वह चाहता है कि बेटी की जिंदगी के इन शुरुआती लम्हों को मुस्तैदी के साथ हमेशा के लिए दर्ज कर ले. लेकिन कैमरे के कारण “पूर्व-भूमंडलीकृत दुनिया” के उस छोटे से क़स्बे में वह आसपास के लोगों के कौतूहल का विषय बन जाता है.

लोग उससे अपनी छोटी-मोटी वीडि‍यो क्ल‍िप्स बनवाते हैं. उसके दफ़्तर में कोई फंक्शन होता है तो उससे उसकी रिकॉर्ड‍िंग करवाई जाती है. मीटिंग्स, स्पीचेस, कन्वोकेशंस आदि के निर्जीव लैंडस्केप्स को दर्ज करते समय वह जब-तब दूसरी चीज़ें भी शूट करने लगता है : उड़ते कबूतर, सड़क पर चल रहा मरम्मत का काम, बरामदे में टलहते लोग, फ़ैक्टरी में काम करने वाले मामूली लोगों की दिनचर्या. और धीरे-धीरे कैमरे का सम्मोहन उसे आद्योपांत ग्रस लेता है.

फिल्म अनेक पहलुओं पर चलती है. जैसे एक महत्वाकांक्षाहीन व्यक्त‍ि के जीवन में अचानक एक नई उत्सुकता के आ जाने से उपजा अवश्यंभावी पारिवारिक तनाव, कम्युनिस्ट शासनतंत्र के तले जीने वाले समाज में सेंसरशिप की जाहिर पाबंदियां, छोटे क़स्बों में फिल्म संस्कृति का विकास वग़ैरह.

फिलिप से उसके द्वारा बनाई जाने वाली छोटी-मोटी वृत्तचित्रात्मक फिल्मों को सेंसर करने की मांग लगातार की जाती रहती है. उसके बॉसेस उसे नियंत्रित करने के उपाय खोजने लगते हैं. उसकी पत्नी उसकी नई मसरुफियत से नाराज़ रहने लगती है.

फिल्म समारोहों में जाने से उसके जीवन और अनुभव का दायरा विकसित होता रहता है. और इस सबके बीच उसके जीवन की लयगति एक दूसरे स्तर पर संचरित होने का उपक्रम करती नज़र आती है : एक स्वप्नविहीन मध्यवर्गीय जीवन के बीच एक अभिनव कल्पना के नवांकुर की विपदाएं और रोमांच.

जो लोग तस्वीरें खींचते हैं, एक जुनून की तरह हमेशा किन्हीं उम्दा फ्रेम्स और कंपोजिशंस की तलाश में खपते रहते हैं, दृश्यों के नए एंगल्स और एवेन्यूज़ तलाशते रहते हैं, जो लोग एमैच्योर फिल्ममेकर और फ़ोटोग्राफ़र हैं (पोलिश में इस फिल्म का शीर्षक “अमातोर” यानी “एमैच्योर” ही है), वे इस सबसे अपने को बहुत अच्छी तरह से जोड़ पाएंगे.

इस सबके मूल में है छायांकन कला का वह रहस्य, जो हमारे लिए दुनिया को “पुराविष्कृत” कर देता है. क्योंकि चीज़ें तो वही रहती हैं, जो इससे पहले थीं, जीवन भी वैसा ही रहता है, लेकिन कैमरे के लेंस से देखने भर के चलते उनमें एक नया आलोक उभर आता है, जो कि अनिर्वचनीय है.

अच्छी तस्वीरें उभरकर सामने आएं, ऐसा अकसर हो नहीं पाता, और रॉबेर ब्रेसां की शब्दावली में एक अच्छे छायाचित्र का मिलना एक “ग्रेस” का प्रतिफल कहकर ही पुकारा जा सकता है, फिर भी छायाकार के मन में बहुधा यह रंज रहता है कि एक क्षण विशेष में चीज़ों को पर्सेप्शन की जिस रोशनी में उसने देखा था, वैसी छवि छायाचित्र में शायद उभरकर नहीं आ पाई है.

आंखों से देखना भी एक ओट से देखना है, तो कैमरे की आंख से देखना तो मूल से और पीछे खिसकना होगा, अरस्तू के शब्दों में “ट्वाइस रिमूव्ड फ्रॉम रियल्टी”, लेकिन यही तो उसका अंतर्सत्य भी है.

छायाकृति में दर्ज करने होने वाला दृश्यबंध वही नहीं होता है, जो कि वह वस्तुत: होता है, वह अनिवार्यत: एक अनुकृति होती है और कला के तमाम उत्पादों की तरह उसका मूल्यांकन भी एक अनुकृति के रूप में ही होता है. सच्चाई कभी कला का उत्स नहीं होती, एक ख़ूबसूरत छलावरण ही उसका अभीष्ट होता है.

इसमें एक दिक़्क़त यह भी है, फिलिप मोश की पत्नी को उससे जो शिकायत रहती है, कि वह छायांकन के लिए वास्तविक क्षण का बलिदान कर रहा होता है. कि जब चीज़ें घट रही होती हैं, तब वह उन्हें अनुभूत करने के बजाय उन्हें दर्ज करने पर ज़ोर दे रहा होता है.

और यह कला का दूसरा सत्य है. कोई भी कला वास्तव का बलिदान दिए बिना पूर्ण नहीं होती है. रचनाकार को हमेशा अपने सामने प्रत्यक्ष घट रही चीज़ों के भोग का मोह त्यागकर उनकी अनुकृति रचने पर स्वयं को एकाग्र करना होता है, क्योंकि वह जानता है कि अनुकरण कला का स्वभाव है और अनुकृतियां दीर्घायु होती हैं : जीवंत क्षण का बेलौस अहसास चाहे कितना ही आकर्षक क्यों ना हो.

एक रचनाकार हमेशा “उत्तरजीवी” होता है. वह एक मुख़बिर की तरह होता है, जो जीवन की सच्चाइयों को चुपचाप सुनकर उनकी रिपोर्ट कहीं और किसी तहख़ाने में दर्ज करने में अधिक यक़ीन रखता है, जो अंतत: कलाकृतियों की तरह उभरकर सामने आती हैं और अपने कारख़ाने की सिफ़त के बाबत हमें चकित करती रहती हैं.

“एमेच्योर” फ़ोटोग्राफ़ी के रोमांच की पड़ताल करते हुए कला के स्वरूप पर विमर्श करने वाली यह एक सुंदर फिल्म है : किस्लोव्स्की के कृतित्व की उत्तरोत्तर भव्य फिल्मों यथा “कलर ट्रायलॉजी” और “डबल लाइफ़ ऑफ़ वेरोनिका” के क़द की ना होने के बावजूद अपनी पर्यवेक्षण क्षमता में बहुत चुस्त, अपनी फिलॉस्फ़ी में बहुत खरी और अपने मंतव्यों में बहुत गंभीर.

कैमरे की आंख से नज़र आने वाली दुनिया को नश्वर आंखों से दिखाई देने वाली दुनिया के बनिस्बत कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत मानने वाले झक्की और धुनी फिल्मकारों, छायाकारों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए.

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