लक्ष्मी चंचल और अस्थिर है. वह एक घर में टिक कर नहीं बैठती, इसीलिये शास्त्रों में लक्ष्मी को चंचला और अस्थिरा कहा है. आज जो लखपति है, एक ही झटके में वह सड़क पर आकर खड़ा हो जाता है और निर्धन जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाता है. आज जो सर्वथा भिखारी और निर्धन है, लक्ष्मी की कृपा से कुछ ही दिनों बाद लखपति बन जाता है.
लक्ष्मी की अनिवार्यता
शास्त्रों में एक स्वर से यह कहा गया है कि धनाढ्य होना अपने आप में मानव जीवन की सफलता है. एक दृष्टि से देखा जाए तो वह पूर्णता और निश्चितता है. इसके विपरीत गरीबी और निर्धनता को जीवन का अभिशाप माना गया है.
साधारण गृहस्थ ही नहीं अपितु ऋषि, मुनि, योगी, संन्यासी भी लक्ष्मी की अनिवार्यता को अनुभव करते थे. वशिष्ठ के आश्रम में इतनी सम्पन्नता थी कि दशरथ का सारा राज्य उसके सामने तुच्छ था.
पच्चीस हज़ार शिष्यों को वह नित्य सुबह शाम भोजन कराते थे और जब दशरथ को कैकेयी नरेश के विरुद्ध युद्ध करने की मजबूरी हुई, तो सैन्य संगठन के लिए दशरथ जैसे राजा को भी वशिष्ठ से धन की याचना करनी पड़ी. धन की आवश्यकता गृहस्थ व्यक्तियों को ही नहीं, अपितु योगियों और सन्यासियों को भी रही है.
वशिष्ठ तो अकेले ऋषि थे, जो उस समय सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति थे. विश्वामित्र के पास इतनी अधिक संपत्ति थी कि वह इंद्र के राज्य को खरीदने की सामर्थ्य रखते थे और उनका आश्रम उस समय पूरे भारत-वर्ष में सर्वाधिक संपन्न था.
गोरखनाथ के पास इतना अधिक स्वर्ण था कि तौला जाना संभव ही नहीं था. नागार्जुन अपने आप में सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति थे.
और ये सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति इसलिए थे कि इनके पास कुछ ऐसी युक्तियाँ, कुछ ऐसे तंत्र, मंत्र या गोपनीय विधियां थीं, जिसके माध्यम से ये लक्ष्मी को अपने घर में आबद्ध कर सकते थे. उसे स्थायित्व देने के लिए बाध्य कर सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी…
लक्ष्मी के तीन रूप
लक्ष्मी के मुख्यत: तीन रूप माने गए हैं, और तीनों ही स्वरूपों से उसकी अभ्यैर्थना शास्त्रों में वर्णित है. वह माँ के रूप में शास्त्रों में प्रचलित है, इसीलिए हम उसे “लक्ष्मी मैया” के नाम से संबोधित करते हैं. वह पत्नी के रूप में शास्त्रों में वर्णित है और इसी वजह से धनवान व्यक्ति को हम लक्ष्मीपति कहते हैं और तीसरा स्वरूप लक्ष्मी का ‘प्रेमिका’ है जिसके माध्यम से लक्ष्मी को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है.
माँ के रूप में लक्ष्मी की आराधना आज के युग में न तो उचित है और न प्राचीन काल में ही उचित मानी गयी है. जैनों के प्रमुख आचार्य पद्मसूरी प्रभु ने एक स्थान पर कहा है कि माँ को तो जीवन भर देते ही रहना पड़ता है, सेवा के द्वारा, सुविधा के द्वारा, और धन के द्वारा.
उससे स्नेह के अलावा और कोई ठोस उपलब्धि संभव नहीं है. इसीलिए माँ के रूप में लक्ष्मी की सेवा करने से केवल आश्वासन और स्नेह ही प्राप्त हो सकता है, पर इसके विपरीत जीवन में निरंतर खोते ही रहना पड़ता है, इसी लिए जो लक्ष्मी की माँ के रूप में पूजा अर्चना करते हैं, वे लगभग निर्धन बने रहते हैं.
आचार्य के शब्दों में वज़न तर्क और शास्त्र सम्मत है. आचार्य ही नहीं, अपितु कई उच्च कोटि के ऋषियों ने भी लक्ष्मी को माँ के रूप में अर्चना करने को उचित नहीं माना है.
पुलस्त्य ऋषि ने एक स्थान पर कहा है, लक्ष्मी को माँ के रूप में स्मरण करना या पूजन करना ही अहित करना है.
दूसरा स्वरूप पत्नी का है, और पत्नी का तात्पर्य अर्द्धांगिनी है, जिसका घर में और शरीर पर बराबर आधा अधिकार है. मैं यहाँ पत्नी शब्द को वासना के रूप में प्रचलित नहीं कर रहा हूँ बल्कि सम्बन्ध निर्वाह की बात कर रहा हूँ.
पत्नी के रूप में किसी प्रकार का कोई लेन देन नहीं होता. व्यापार विनिमय नहीं हो सकता. यहाँ तो जितना लिया उतना ही देना भी पड़ता है. उस पर अधिकार नहीं जाता सकते. उस पर पूरी तरह नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकते.
यदि उसे बहुत अधिक दबाया जाए तो वह उच्छृंखल हो सकती है और परपुरुषरत बन सकती है. इसलिए शास्त्रों में पत्नी के रूप में भी लक्ष्मी की अभ्यर्थना ज्यादा उचित नहीं मानी है.
लक्ष्मी से तीसरा संबंध प्रेमिका का है. प्रेमिका का तात्पर्य, जो सब कुछ देने के लिए उतावली रहती है. अपना जीवन, अपना यौवन, अपना शरीर, अपना धन, मान, प्रतिष्ठा और सब कुछ. जो सब कुछ देकर के भी संतुष्ट होती है, जिसके मन में लेने की कुछ भी इच्छा नहीं रहती, जो लेन-देन में विश्वास नहीं करती वह प्रेमिका कही जाती है.
शास्त्र में भी लक्ष्मी को प्रेमिका के रूप में स्वीकार किया है. यजुर्वेद में भी लक्ष्मी का आह्वान करते समय कहा है, “तू प्रिया रूप में मेरे जीवन में आ, जिससे मैं जीवन में सभी दृष्टियों से पूर्णतया अनुभव कर सकूं”.
प्रेमिका को भी आबद्ध करना आवश्यक होता है, क्योंकि नारी जाति ही स्वभाव से चंचल होती है, पारे की तरह अस्थिर होती है, उसे शब्दों से, विचारों से या कार्यों से आबद्ध बनाए रखना ज़रूरी होता है.
प्रेमिका को भी अपने पौरुष से आबद्ध किया जा सकता है, और तांत्रिक ग्रंथों में तंत्र को ही पौरुष माना गया है. तंत्र का अर्थ पौरुष है.
– डॉ नारायण दत्त श्रीमाली की पुस्तक ‘तंत्र: गोपनीय रहस्यमय सिद्धियाँ’ का अंश
अकाट्य, विष्णु र्पियाय नमः