विदेशी सामानों का बहिष्कार : दो कालखण्ड, एक कहानी

तुमसे न हो पाएगा.

साल 1905.

लार्ड कर्ज़न ने जब से ये बंगाल विभाजन की घोषणा की है, मानों देश में भूचाल सा गया है. इस फरमान के खिलाफ व्यापक जनांदोलन हो रहा है. हुआ तो यूँ है कि असल में इस विभाजन द्वारा बंगाल के एक हिस्से में बंगाली भाषियों को एक तो खुद बंगाल में ही माइनॉरिटी बना दिया गया है और दूसरा हिस्सा हिन्दू माइनॉरिटी बना दिया गया है.

कांग्रेस अब यह चालें अच्छी तरह समझ रही है. अब कांग्रेस की याचनात्मक शैली में बदलाव के लक्षण शुरू हो गए हैं. खुद कांग्रेस ने भी इस विभाजन का व्यापक विरोध करने की ठानी है. इस आंदोलन को नाम दिया गया है स्वदेशी आंदोलन.

अधिकांश पंडित, अधिकांश मेहतर, अधिकांश चिकित्सक से लेकर भंगी-भूज तक में स्वदेशी का प्रचंड उत्साह ऐसा है कि वे विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वालों को सेवाएं नहीं दे रहे हैं. लोग प्रशासनिक दिक्कतों में अड़चनों की दलील की वास्तविकता खूब समझते हैं.

प्रमोद एक किशोर था. पता नहीं कैसे उसमें इस आंदोलन के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा था. अंग्रेज़ों के हाकिम के लड़के का यूँ खुलेआम यह स्टैंड? बात खुद प्रमोद के पिता जी को पच नहीं पा रही थी.

ये लौंडा पूरे मोहल्ले के लोगों को भड़का रहा है. कैसे रह पाऊंगा मैं ऐसे? सोच समझ कर उन्होंने अंग्रेजों के तरफदार प्रोफेसर साहब को घर पर चाय के लिए बुलाया. चाय तो दरअसल बहाना था. असल बात तो यह थी कि शायद अपने ही कॉलेज के प्रोफेसर की बात प्रमोद मान ही ले…कहता तो था कि सर मिल और मिल्टन के बेजोड़ विद्वान हैं…

प्रोफेसर साहब ने चाय की चुस्कियों के बीच बात शुरू की.

‘सो प्रमोद, योर फादर टोल्ड मी अबाउट योर इंक्लीनेशन…तुम्हें वाकई लगता है कि यू रियली कैन डेफीट माइटी इंग्लिश?’

प्रमोद ने प्रत्तुत्तर दिया,

‘सर भले ही मैं हार जाऊं, लेकिन कोशिश ही न करूँ ये तो गलत है न?’

‘लुक प्रमोद! ये अंग्रेजों के सामने हमारे प्रोडक्ट्स देखो… दे आर सो डल… इंग्लिश प्रोडक्ट्स में एलिगेंस है…दे आर जस्ट सो रॉयल और साथ में सस्ते भी….हम अभी उनसे दो सौ साल पीछे हैं…तुम लोग सर्वाइव नहीं कर पाओगे…’

‘दो सौ साल? सर नौरोजी ने कहा है कि पिछले 25-30 सालों में हमारी पर हेड इनकम घट गई है…. सर हम दो सौ क्यों पूरे 500 साल पीछे हैं…हैं नहीं बल्कि कर दिए गए हैं…हमारे ढाके के मलमल को जबरदस्ती बंद करवाया गया…

हमारे खेतों में हमसे ज़बरदस्ती नील की खेती करवाई गई..क्या-क्या सुनेंगे सर आप? हम पीछे ही होते सर तो कोई बिज़नस करने के नाम पर हमारे यहाँ नहीं आता…आप जाइये…आप योग्य टीचर तो हैं लेकिन योग्य गुरु नहीं….गोखले इस मच बेटर दैन यू…

गुरूजी इस फार बेटर ऐन इंटेलेक्चुअल दैन व्हाट पॉसिबली यू कैन एवर बी….देखिये ये राखी गुरुदेव ने मुझे खुद अपने हाथ से बाँधा है…हम दिल में ठान चुके हैं, दिमाग में बिठा चुके हैं…अब बस. अब और नहीं.’ प्रमोद की आँखें चमक रही थीं. गुरूजी ने कहा था, ‘यू कान्ट डेफीट माइटी इंग्लिश.’ और वे चले गए थे.

गुरुदेव द्वारा रचित ‘आमार सोनार बांग्ला’ इस आंदोलन का मंत्र बन चुका था.

भीषण संघर्ष और विरोध के बाद छः साल में विभाजन का यह फैसला रद्द हो गया.

वह माइटी इंग्लिश की भारतीय जनता से पहली हार थी.

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111 साल बाद, यानि 2016:

भारत अब आज़ाद है. पाकिस्तान भारत का पड़ोसी मुल्क और भारत के लिए नासूर है. चीन भारत की पाक को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर घेरने की हर संभव कोशिश में अड़ंगा डालता है. चीन ने 62 की लड़ाई में भारत को ज़ोर की पटखनी दी थी. हालाँकि वो अपनी धूर्तता को अपनी मीठी बातों और कभी-कभी तल्ख़ रवैये से ढांकने की पूरी कोशिश करता है.

चीन की डंपिंग के चलते उसके सामान भारतीय बाजारों में इतने सस्ते बिकते हैं कि भारतीय व्यापारी उनके सामानों को बेचने को मजबूर हैं. सरकार भी क्या करे? उसके हाथ बंधे हुए हैं, चीन से व्यापार आधिकारिक रूप से बंद करना मतलब कई फ्रॉन्ट्स पर एक साथ मोर्चे खोल देना, जिसके लिए भारत तैयार नहीं है. जनता को ही चीन का विरोध करना होगा.

ऐसे में

प्रमोद एक कस्बाई लड़का है. पिताजी की इलेक्ट्रिक आइटम्स की बड़ी सी दूकान है. इस दीवाली के ठीक पहले सोशल मीडिया पर चीन के विरोध की खूब बात थी. आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था. प्रमोद भी इस आंदोलन की गिरफ्त में आ चुका था. उसने अपने पिताजी से भी आग्रह किया कि वे भी इस मुहिम का हिस्सा बनें. पिताजी ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा था, ‘अरे ये सब लौंडे-लपाड़ियों की बातें हैं, जब पैसे निकालने की बात आएगी न, तब सस्ता ही चलेगा. प्रमोद भी लोगों को अपनी बात समझाने में लगा रहा.

चीनी आइटम्स के बड़े व्यापारी के लड़के का यह विद्रोह? खुद पिताजी भी ग्राहकों के ढीले रेस्पॉन्स से परेशान हो उठे. आर्डर सारे आ चुके थे. घाटा? ‘कुछ करना ही पड़ेगा. प्रमोद कितनी तो तारीफ करता है उन प्रोफेसर साहब के गरीबों के हक़ की बात करने की? उस दिन अखबार में भी तो छपा था कि वो चीनी सामानों के विरोध के पक्ष में नहीं हैं. आज ही बुलाता हूँ चाय पर.’

चाय की चुस्की के साथ प्रोफेसर साहब ने समझना शुरू किया,

‘देखो बेटा! चीन पर इसका रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा.’

‘न पड़े सर रत्ती भर, राई भर तो पड़ेगा? आप क्या सोचते हैं कि अगर अंबानी को एक लाख का नुक्सान हुआ तो वो उसे अनदेखा करेगा? उस पर तो सर सौ रूपये के नुक्सान का भी असर होगा..’ प्रमोद ने कहा.

‘हाँ, बात ठीक है, लेकिन ज़रा सोचो बेटा कि उनके सामान सस्ते हैं, कम से कम गरीब भी अपने घर पर झालर तो टांग पाता है?’ प्रोफेसर साहब ने आगे कहा.

‘सर, जब किसी का हुनर, उसका बिज़नस एक्सपोर्टेड सस्ते सामानों के चलते ख़त्म हो जाएगा तो कोई गरीब न होगा तो क्या होगा? मैं तो कहता हूँ भारत के लोग एक्सपोर्टेड सस्ते सामानों के ही चलते इन्नोवेटिव नहीं हो पा रहे, कंपीटिटिव नहीं हो पा रहे…’ प्रमोद का उत्तर आया.

‘बेटा! यह काम तो सरकार का है न? क्यों नहीं रोक देती यह व्यवस्था? खुद तो चीन से गलबहियाँ और लोगों को देशभक्ति के नाम पर भड़काना? यह क्या बात हुई?’ प्रोफेसर साहब ने आगे कहा.

‘सर सरकार हमी आप तो हैं न? हम सबने किया मतलब सरकार ने किया…ज्यादा राजनीति नहीं जानता लेकिन इतना भी कम नहीं जानता कि ये भी न समझ सकूँ…’ प्रमोद ने कहा…

‘लेकिन तुम सब चीन को नहीं हरा सकते, वो बहुत डाइवर्स और पावरफुल मार्किट वाली कंट्री है…’ यह प्रोफेसर साहब का अंतिम अस्त्र था.

‘देखते हैं सर…क्या पता…’ प्रमोद का उत्तर आया.

प्रोफेसर साहब चले गए.

दीपावली अब नज़दीक थी.

पूरा धंधा प्रमोद के पिता जी की दूकान से उठ कर सामने नए लौंडे की दूकान की तरफ शिफ्ट हो गया. मिट्टी के दिए, झालरें और कागज़ की पताकाएं और सब यहीं लोकल मेड.

धनतेरस के दिन कई चीज़ें एक साथ हुईं. प्रमोद चाँदी के पांच सिक्के लाया था. पिताजी को पूरे पचास हजार रूपये भी अपनी पहली कमाई के अर्पित कर चुका था. सामने लौंडे की दूकान में अम्मा से गुपचुप पैसे लेकर पार्टनर बन गया था.

अखबार में खबर आई कि चीन को इन फ़ेसबुकिया लौंडे-लपाड़ियों की वजह से गहरा आघात लगा है. आर्थिक भले ही न हो लेकिन मानसिक तो बिल्कुल.

जो सबसे बड़ी बात हुई वो यह:

कुम्हारों की टोली से एक बुजुर्ग सुबह ही तीन सौ मिट्टी के दिए और मिठाई का डब्बा लिए प्रमोद के पिताजी से मिले और बोले,

‘साहब प्रमोद बाबू महान हैं. आज उन्हीं की वजह से हमारा त्यौहार धूमधाम से मन रहा है, नहीं तो दियों के साथ हम भी गायब ही हो रहे थे साहब.’

किसी भी पिता के लिए अपने पुत्र की किसी अन्य से प्रशंसा सुनना शायद उसके लिए गर्व का क्षण होता है.

पांच चाँदी के सिक्कों और पचास हज़ार रुपयों से ज्यादा ये मिठाई का डब्बा और मिट्टी के दिए, प्रमोद के पिता जी के सीने को 56 इंची बना रहे थे.

अंदर खिड़की से प्रमोद ने यह फोटो खींच कर फेसबुक पर डाल दी और साथ में लिखा,

‘हमसे हो गया भाइयों, आज आखिर हमने रत्ती भर फर्क पड़वा ही दिया.’

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आप सभी को इस मुहिम की सफलता और दीपावली की शुभकामनाएं. बस रुकना नहीं है, लड़ाइयां अभी और भी हैं.

– उजबक देहाती विकामी

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