दिवाली रिश्वत के उपहारों के लेनदेन का त्यौहार,
‘संस्कृति’ के नाम पर इतनी बड़ी राष्ट्रीय बईमानी ….?
जब सरकारी कुर्सी भूखी हो उपहारों के थैलों की,
तब देश में जरूरत है सिर्फ सरदार पटेलों की
उपहार-शिष्टाचार के बहाने दिवाली पर देश में सरकारी तन्त्र भ्रष्टाचार साध रहा है और वो भी “सतर्कता जागरूकता सप्ताह “ के अंतर्गत यह सब चल रहा है.
हर साल अक्टूबर के आख़िरी सप्ताह में (25-31अक्तूबर तक) सरदार पटेल के जन्मदिन के अवसर पर हमारे देश में सरकारी स्तर पर “सतर्कता जागरूकता सप्ताह “ मनाया जाता है. इसमें सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में बड़े – बड़े पोस्टर, बैनर, होर्डिंग इत्यादि से सरकारी कामों में भ्रष्टाचार निवारण और उन्मूलन के उद्देश्य से जागरूक करने के कर्मकांड के रूप में उपदेश दिए जाते हैं और सभी को एक दिन सदाचार और पारदर्शिता अपनाने की शपथ भी दिलवाई जाती है.
लेकिन इस बार तो विडम्बना इस बात है कि राष्ट्रीय स्तर पर मनाये गए इस सतर्कता सप्ताह में ही दिवाली आ गयी है और दिवाली पर उपहारों की बहती नदी में ही सरदार पटेल और उनकी भ्रष्टाचारमुक्त भारत की संकल्पना का ही तर्पण किया जा रहा है. केन्द्रीय सतर्कता आयोग, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो इत्यादि सब के सब हाथ पर हाथ धरें ( या कई बार खुद भी इसमें हाथ धोते ) दिखाई देते है.
क्योंकि जब इस कर्मकांडी सतर्कता सप्ताह के अंतर्गत ही दिवाली का त्यौहार आ गया है तो इस सरकारी सतर्कता की आँखों पर दिवाली उपहारों की ऐसी पट्टी चढ़ी है कि हर सरकारी अधिकारी/कर्मचारी की झोली दिवाली के ‘अवैधानिक -उपहारों‘ से भर रही है.
और कोई भी सतर्कता अधिकारी ही नहीं, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो और देश भर में फैली भ्रष्टाचार निरोधक शाखाएं भी शहर के हर कोने में दिवाली के दीयों की रौशनी में भी अपनी आँख नहीं खोल पा रही है.
सभी सरकारी अधिकारीयों/कर्मचारियों को रंगे हाथों इन “रिश्वती-उपहारों” की लेनदेन के समय नहीं पकड़ पा रही है. तो क्या ये उपहार रिश्वत नहीं होते है या इसकी किसी कानून में छूट है?
भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम – 1988 की धारा – 7 8, 9, 11 और 13 किसी भी सरकारी अधिकारी / कर्मचारी को “वैध पारिश्रमिक से भिन्न प्रकार का भी कोई परितोषण“ लेने या देने को रिश्वत की श्रेणी में ही रखती है. चाहे फिर वह कोई सोनपापड़ी या ड्राईफ्रूट के डिब्बे से लेकर हॉलिडे / हनीमून पैकेज ही क्यों न हो.
या कई अधिकारी दुबारा ये सब न लेकर सीधे “साक्षात्-लक्ष्मी” के कोड नाम से कॉलगर्ल के साथ रात गुजारने के रूप में ही रिश्वत क्यों न लेते हो. या कई महिला अधिकारी जो छुप कर शराब या सिगरेट का सेवन करती है लेकिन वे इन सामानों को लेने जाने के लोकलज्जा-भय या लोक छवि भंग से बचने के लिए पूरे साल भर का इनका कोटा एक बार ही दिवाली पर उपहार में क्यों ना लेती हो – सब रिश्वत ही तो है या नहीं?
कोई भी सरकरी कर्मचारी को उपहार भेंट करने वाला इतना दानी तो होता नहीं है या फिर कभी होगा भी नहीं कि बिना किसी स्वार्थ- लालच, भय-पक्षपात के ये सब देता हो. कोई भी कंपनी, वेंडर, ठेकेदार, सेवाप्रदाता या सेवा-आदाता अपने फायदे के लिए ही ये सब देता है.
यदि लेने वाले व्यक्ति उस पद पर न हो तो कोई उसे प्रेम या स्नेह से घर देने नहीं जाता है. कुछ इस भय से देने जाते है कि कहीं दिवाली पर न देने से काम न बिगड़ जाये कुछ इस लालच में देने जाते है कि कोई आगे का काम बन जाये या पिछले दिए से जो चल रहा है वह ऐसे ही चलता रहे. तो फिर यह रिश्वत है या नहीं?
फिर कोई भी सतर्कता अधिकारी ही नहीं, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो और देश भर में फैली भ्रष्टाचार निरोधक शाखाएं भी दिवाली के इन उपहारों पर कोई मुकदमा क्यों नहीं बनाती है, क्या संस्कृति के नाम पर ऐसी छुट दिए जाने का प्रावधान किसी क़ानून में है?
स्टेट्समैन अख़बार की एक वरिष्ठ पत्रकार नंदिनी अय्यर की 2001 में छपी एक रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ था कि सरकारी स्तर पर दिवाली के बाद सबसे ज्यादा ऐसे गलत फैसले होते है, जिनसे कुछ विशेष व्यक्ति या कंपनीज को अनुचित लाभ दिए जाते है और इनमें दिवाली के उपहारों का विशेष योगदान होता है.
इस पर ऐसे उपहारों का संज्ञान लेते हुए केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने 2002 में दिवाली से पहले दो परिपत्र जारी किये थे कि ऐसे उपहारों को सरकारी कार्यालयों में घुसने ही नहीं दिया जाए, ऐसे उपहारों की लेनदेन को रोका भी जाये और ऐसा करने वालों को दंडित भी किया जाये.
इसके बाद भी किसी के विरुद्ध कोई कार्यवाही आजतक नहीं हुई है. इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि टेलिकॉम घोटाले और कोयला खदान घोटाले में भी यह बात निकल कर आई कि इनके लिए रिश्वत की सबसे बड़ी रकम दिवाली के दिनों में ही उपहार के रूप में वसूली गयी थी या देश में हथियार निर्यातक कम्पनीज़ भी सैन्य अधिकारीयों को दिवाली के बहाने ही मिलकर उपहार के बहाने रिश्वत देती है.
सरकारी स्तर पर ही नहीं यह दिवाली-उपहार परम्परा या कहे कुरीति सब कॉर्पोरेट्स हाउस से लेकर दिहाड़ी मजदूरी देने वाले ठेकेदार तक में फैली हुई है. जहाँ कॉर्पोरेट जगत में चांदी – सोने के सिक्के दिए जाते है तो ठेका मजदूरों को महानगरों के आसपास छोटे कस्बों में बनी मिठाई देकर बहलाया जाता है.
बोनस जैसा फायदा भी कई उद्योगों में दिवाली उपहार के रूप में ही दिया जाना कही न कहीं दिवाली जैसे त्योंहार को ही कैश किया जाना ही होता है. वरना तो सब पूंजीपति दमड़ी भी सरकने को दम सरकना ही मानते है.
यही नहीं सामजिक स्तर पर भी यह रिश्वत दिया जाना कोई कैसे भूल सकता है, बहन-बेटी, पोती-नाती के सुसराल में भी कई बार नहीं चाहते हुए भी लोग दिवाली उपहार लालची सुसराल या पति की प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष मांग पर भेजे ही जाते है.
किसी की हैसियत ऐसा करने की होती है तो कोई कर्जा करके भी यह करता है और समाज में एक और कुरीति को बढ़ावा देता है. किसी स्नेह, प्रेम या आवश्यकता के अनुरूप दिया जाना तो समाज में कहीं तक जायज हो सकता है लेकिन किसी भय या मांग पर कुछ दिया जाना कहाँ तक सामजिक रूप से उचित है, यह भी दहेज़ का एक विस्तृत त्योहार वसूली ही समझो तो कोई बुरे नहीं है?
बंगलौर के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं स्नायुविज्ञान संस्थान ( निमहांस ) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएससी ) में 2005 से 2008 तक डॉ. शेषाद्री और डॉ. कृष्णामूर्ति ने एक अध्ययन किया कि भारत में त्योहारों के आसपास समाज में आर्थिक गतिशीलता का मानव के मनोव्यवहार पर क्या असर होता है.
उन्होंने पाया कि उच्च वर्ग में जहाँ इस दौरान किसी ना किसी रूप में मिले उपहारों इत्यादि से उल्लास का प्रकटन होता है वहीँ निम्न एवं मध्यवर्ग में आर्थिक तनाव से हताशा का संचार होता है.
यह मनोव्यवहार समाज में इन वर्गों के व्यक्तियों में क्रमशः लालच और भय का पूर्वाभास त्योहार से पहले ही देने लगता है. इससे समाज में आर्थिक-प्रतिबल उत्पन्न होने लगते है साथ ही अन्तर्मुखी – व्यक्तियों में आर्थिक तनाव / प्रतिबल के कारण आत्महत्याओं का चलन भी देखा गया है. फिर यह किस समाज के लिए उजाला देने वाला दीपपर्व होता है?
धर्म और संस्कृति के नाम पर मनाये जाने वाले इस पर्व के अवसर पर होने वाले भ्रटाचार, काले धन के चलन और अवैध उपहारों के गबन की इतनी बड़ी राष्ट्रीय बेईमानी को इतना आश्रय सरकारी ही नहीं कॉर्पोरटर जगत से लेकर समाज तक में दिया जाना धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों को कैसे अच्छा लग रहा है, यह तो समझ से बाहर है या नहीं?
- ओम प्रकाश “हाथ पसारिया”