किताबों के ढेर के बीच पला बढ़ा हूं.. पिताजी साहित्यकार हैं और लिखने से ज्यादा पढ़ने का शौक है.. मैं अध्यात्मिक विषयों पर जो रुचि रखता हूं वो कहानियों और व्यंग्यों में महसूस नहीं करता.
पिताजी बचपन से पढ़ने पर जोर देते रहे. किताबों के पन्ने कुछ समय उलटता पलटता लेकिन किताब पूरी पढ़ना अपने बस की बात नहीं थी. पिताश्री की तो पूरी लाइब्रेरी थी और आज भी बना रखी है.
फिर उन्होंने मुझे कहा जिंदगी में कुछ पढ़ो न पढ़़ो तीन किताबें जरूर पढ़ना. मक्सिम गोर्की की मां, रवींद्र नाथ टैगोर की गोरा और श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी.
पढ़ना वढ़ना तो शुरू नहीं किया अलबत्ता शेखी बघारना शुरू कर दिया. ये तीन किताबें जरूर पढ़नी चाहिए. बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिससे भी बात करता वो बेशक गोर्की और टैगोर के लेखन से परिचित नहीं होता लेकिन श्रीलाल शुक्ल को जरूर पहचानता.
खास तौर पर उनकी कालजयी रचना राग दरबारी को तो जरूर ही. मुझे लगा कुछ पढ़ो न पढ़ो इसे जरूर पढ़ डालना चाहिए. पहले तो लगा पढ़ने में जोर लगेगा लेकिन एक बार किताब हाथ में ली तो फिर छोड़ने का मन नहीं किया.
किताबें पूरी पढ़ने का क्या मजा है इसी किताब ने सिखाया. फिर जोर जोर से पढ़कर अपने दोस्तों को इसे सुनाना भी बहुत याद आता है. आज श्रीलाल शुक्ल जी की पुण्यतिथि है उन्हें सादर श्रद्धांजलि.