अब्बा बताते कि कामली की तुरपाई
और जूनी रोटियों को यों नोन लगाकर दुबारा
सेंकना कि लज्जत बाकरखानी से ज़्यादा हो
ज़िंदगी बसर करने बस इतना आना चाहे है
एक रोज़ यूँ हुआ कि हाथीपाले तक
आब-ए-मावठा चढ़ा, कामली सोरबोर
चंद फ़ाख्तॊं ने टुक रोट पर डाके डालें
अब गुलूबस्ता मनके गिनते थे, ज्यूँ त्यूँ शामॊशब काटते
गुल्ला मचा था गली में
तब जैसे गुलेजाफ़री खिला ग़रीबखाने में
मनमती दीगरगूँ- कभू धौरी कभू साँवरी
कभू कभू कलूटी
मगर गेसू हर सूरत इतराए हुए
मावठे में मसहरी पे जैसे
सिगड़ी हो गई हो चेतन
जाते जाते गेसू उलझाकर मुँह पे डाला एक
कि गाल पे काट का निशान था
बाबुल से बोली घर पहुँच, ‘किसी ग़रीब को
कामली दे आई, बेचारा ठिठुरॊं मरता था’.
भंडपीर इन्दौरी
(भंडपीर की यह नज़्म ग़रीब को अमीर और वशीकरण करने को दी जाती है. बाज़ दफ़ा हकीम इसे वाजीकारक नुस्ख़े की तरह भी देते है.
जाड़ों की बरसात में कम्बल में भीगने और कैसे मनमती के संग वस्ल की बात होती है, इसका मज़मून इसमें बांधा गया है.
मनमती कितनी रीबेल कितनी दबंग रही होगी इसका तस्सवुर ही तीर की तरह फेफड़ों में धँसकर रह जाता है.
प्रतिरोध के इस संसार में असंख्य तरीक़े है.)
*कामली – कम्बल.
*बाकरखानी- घी और शक्कर से भरी मैदे की रोटी.
*आब-ए-मावठा- जाड़े की बरसात का पानी.
*गुलूबस्ता- मौन.
*गुलेजाफ़री- पीला फूल.
*दीगरगूँ- जिसका रंग बदल जाएँ.
- साभार अम्बर पाण्डेय
चित्र साभार बॉलीवुड फोटोग्राफ़र जयेश शेठ (मॉडल- भैरवी गोस्वामी)