देहरी पर दीया

मिट्टी का दीया, ज़रा सा तेल और दुबली-सी बाती. और इसे अपने हाथ में लिए खड़ा हूँ कार्तिक अमावस्या की इस रात. अंधकार के इंतज़ार में. अँधेरा हो तब तो जलाऊँ. मगर शहर है कि जगमगाए जा रहा है.

इस प्रगल्भ और वाचाल प्रकाश के सामने मेरे दीये की क्या बिसात. सोचा तो यही था कि द्वार पर जलाऊँगा मगर कैसे जलाऊँ. वहाँ तो नए-नए लगे स्ट्रीट लाइट का दूधिया अहंकार पसरा है.

तो क्या मेरा यह नन्हा-सा दीया मेरी सीमा है, मेरी बेचारगी है या मेरी गंवई विनम्रता और भोलापन है? और कुछ भी नहीं? सोचते-सोचते मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ और अंधकार छा जाता है, इतना घना कि स्मृतियों के सिवा कुछ भी दिखाई न दे.

मुझे अपना गाँव दिखता है. अब मैं अपने गाँव में खड़ा हूँ. कार्तिक का महीना. दूर-दूर तक कच-कच हरे धनखेत. रबी की फ़सल से भरे घर.

ठीक कहते थे बाबा नागार्जुन – अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है ! कि तभी पंछियों का कलरव सुनाई देता है और मैं निरभ्र आकाश की तरफ़ देखता हूँ. संध्या का मटमैला आँचल ओझल हो रहा है और आ रही है तिमिरवर्णा अमानिशा.

थोड़ी ही देर में सारा गाँव तिमिरमग्न. यह मेरा गाँव है कि कोई सघन वन जहाँ मैं घिर गया हूँ. कोई विषैला जंतु काट न ले. लील न ले कोई अजगर. किसी नरभक्षी का आहार न बन जाऊँ. एक मन और सौ डर. और तभी मेरे भीतर पत्थरों की टकराहट गूँजती है और भक्क से जल उठती है आग. मेरी आँखें बंद हैं

और विराट सामूहिक स्मृति के मंच पर एक कबीला दिखता है. जहाँ साँझ ढले परछी जाती है एक बहू जो थोड़ी ही देर बाद देखती है कि घर के सारे पुरुष लाठी लेकर कहीं जा रहे हैं. पूछती है तो ज्ञात होता है कि सब उस दैत्य से लड़ने जा रहे हैं जिसने अंधकार फैला रखा है.

बहू कहती है – उन्हें रोको और मुझे मिट्टी का सबसे छोटा बर्तन, तेल और कपास दो. चकमक पत्थर दो और देखो कि कैसे हारता है वह दैत्य. बहू झट से उस क़बीले का पहला दीया बनाती है और खट से जला देती है. दीये की दीप्ति फैलती है और फैलती है बहू की मुस्कुराहट की उजास. है. यह एक नयी बात थी जिसे एक बेटी जो बहू बनी उसने सम्भव किया.

क़बीले के सरल हृदय लोगों ने बहू को देवी माना – सुख और सौभाग्य की देवी विष्णुप्रिया लक्ष्मी. नई परम्पराएँ ऐसे ही बनती हैं. हर नई परम्परा सभ्यता के आँगन में नए दीप जलाती है नई बहुओं की तरह.

तो क्या दीपावली नई बहुओं का स्वागत है? नई परम्परा का उत्सव है? मेरा मन तो कहता है – हाँ. मेरी आँखें अब भी बंद हैं और मैं सामूहिक स्मृति की लहरों पर तैरते हुए पहुँचता हूँ अयोध्या जहाँ  14 वर्ष बाद मर्यादाओं की मिसाल क़ायम करने वाला उसका सबसे अच्छा बेटा लौटा है अपने अनुज और घर की बहू के साथ.

यह उस घर की बड़ी बहू के द्विरागमन का दिन है. उसके नए जन्म का दिन है. अयोध्या नगरी सीता के स्वागत में दीपमालाओं से सज जाती है. माननेवाले मानते रहें कि यह स्वागत अवतार समझे जाने वाले बेटे के लिए था.

अपने घर में किसी का क्या स्वागत? कैसी औपचारिकता ? मैं अयोध्यावसियों के मन में झाँक रहा हूँ और साफ़ देख रहा हूँ दीपमालिकाएँ इसलिए सजीं कि बेटा उस बहू के साथ आया है जिसे पुरवासी न ठीक से निहार सके थे और न ही अपने मान-आदर-प्यार-दुलार से अभिषिक्त कर सके थे.

मैं आँखें नहीं खोल पा रहा क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि मेरी माँ यम के नाम का दीया लेकर घर से बाहर जा रही है. दीये की टिमटिमाहट यम तक पहुँचे या न पहुँचे मगर मुझे सामूहिक स्मृति के वीडियो संग्रालय में पहुँचकर उस वीडियो को चालू करता हूँ जिसपर लिखा है नचिकेता.

अरे यहाँ तो यज्ञ हो रहा है. अच्छा, तो यह बाजश्रवा हैं. मगर यह क्या कि जितनी गाएँ दान के लिए मँगा रखी हैं – सब की सब बूढ़ी. शीघ्र ही मरेंगी. राजा के घर ना सही तो ब्राह्मणों के घर. तभी खड़ा होता है एक तेजस्वी बालक और राजा के निकट जाकर पूरी विनम्रता से प्रतिकार करता है कि ये बूढ़ी गाएँ क्यों दान में जा रही हैं.

संवाद आगे बढ़ता और बालक पिता से कहता है कि प्रिय वस्तु के दान का ही प्रावधान है तो मुझे किसे देते हैं. पिता जो कि राजा भी है क्रुद्ध हो जाता है और कहता है – तुझे मृत्यु को देता हूँ.

और आज्ञाकारी बालक यमराज के द्वार पर पहुँचता है. किंतु पट बंद. यमराज अनुपस्थित. (कितना अच्छा होता यमराज कभी-कभी छुट्टी पर आजकल भी चले जाते. )

तीन दिनों बाद तेजस्वी बालक और यमराज की भेंट और बौद्धिक मुठभेड़ होती है. यमराज वर देना चाहते हैं. किंतु बालक अपने पिता की प्रसन्नता और मृत्यु के रहस्य का ज्ञान चाहता है.

बालहठ जीतता है और नचिकेता को प्राप्त होता है – अग्निविज्ञान. मेरे हाथ में अबतक अप्रकाशित दीप मुझे समझाता है – अग्नि है तो जीवन है, प्रकाश है. अग्निविज्ञान जीवन का विज्ञान है. मृत्यु से अभय का मंत्र है.

मुझे जलाओ और जी भरकर देखो -जीवन को जगत को और उसके सातत्य को. मृत्यु का कोई रहस्य नहीं. रहस्य तो जीवन के हैं. जानो, उन्हें जानो नयनों को शीतल करती मेरी इस विनम्र रोशनी में.

किंतु इससे पहले कि दीप बालूँ सामूहिक स्मृति के अजायबघर में एक नया वीडियो चालू हो जाता है. समुद्र विक्षुब्ध है. अचानक एक एक विशाल पर्वत उखाड़कर रख दिया जाता है – उसके वक्ष से मर्म तक.

और उसे मथा जाता है – इतना कि एक के बाद एक 14 रत्न निकलते हैं. उन रत्नों में सबसे दीप्त सबसे जीवंत हैं लक्ष्मी जो निस्पृहता और सर्वकल्याण के प्रतीक विष्णु का वरण करती हैं. मज़ेदार वीडियो है भाई. लक्ष्मी के हाथों से धन-धान्य नि:सृत हो रहा है- अजस्र.

मगर वे उल्लू पर क्यों बैठी हैं. इसका उत्तर उस वीडियो में तो नहीं मगर उसी अजायबघर सेवएक चूहे पर बैठे वक्रतुंड, महाकाय, लम्बोदर गजानन का स्वर गूँजता है – ”लक्ष्मी को लोकसागर में बहने दो. धारण करोगे तो उल्लू की तरह दिवांध हो जाओगे. सिर्फ़ अंधकार में ही देख पाओगे.

उस वक़्त जब लोग अपने धन की परवाह किए बग़ैर निश्चिन्त सोते हैं. तुम्हें जीवन नहीं सिर्फ़ धन दीखेगा जिसे तुम सोए लोगों की दुनिया से चुराते फिरोगे.” मेरी आँखें बंद हैं और मैं साफ़ देख रहा हूँ कि सहस्राब्दियों से लोग मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश को न सिर्फ़ पूजते आ रहे हैं बल्कि उल्लू बनने या बने रहने को न सिर्फ़ जिए बल्कि मरे भी जा रहे हैं.

मेरे हाथ का दीया अभी नहीं जला है मगर मन में रोशनी की मद्धिम गरमाहट महसूस हो रही है. मेरी चेतना का दीया जल उठा है. उसे लेकर मैं अपने भीतर उतरता हूँ जहाँ जगत से भी अधिक सघन और डरावनी अमावस्या है.

अपने मन को कितना कम जानते हैं हम. एक अनंत गुफ़ा है. एक अगम कुआँ है. लक्ष्मी को किसी भी क़ीमत पर धारण करने वाला उल्लू वहीं रहता है. कुटिल कामनाओं की नागिनें वहीं रहती हैं. चोरी का माल ढोनेवाला गधा और क़ब्ज़े की ज़मीन को जोतनेवाले बैल भी वहीं रहते हैं.

निर्द्वन्द्व और निर्मोही भेड़िए भी. ख़ंजर थामनेवाले हाथ, ट्रिगर पर टिकीं उँगलियाँ और लाशों पर चलकर तख़्त तक पहुँचने की हिंस्र ख़्वाहिशें – सबकी पैदाइश यहीं. परवरिश भले बाहर. बाहर जो पटाखों का शोर है उसकी जड़ें भी यहीं हैं. इस गुफ़ा की सफ़ाई तो करनी होगी. न सही पूरी , थोड़ी ही सही.

और तभी बिजली गुल हो जाती है. जगमगाते शहर में भीषण अमावस्या छा जाती है. मगर पटाखे गूँजते रहते हैं सभ्यता के अंतर्मन में दहाड़ते ख़ालीपन की तरह. और मैं अपने हाथ के दीये को जलाकर रख देता हूँ – उस देहरी पर जिससे होकर बाहर जाऊँ तो दुनिया और भीतर जाऊँ तो मन जहाँ मद्धिम रोशनी और मीठी गरमाहट का इंतज़ाम हो तो बाहर की दुनिया भी संवर जाए.

– विनय कुमार

Comments

comments

LEAVE A REPLY