सुना है कि 1969 में इंदिरा गांधी ने भी कांग्रेस में विभाजन कराया था. कांग्रेस के बूढ़े बुज़ुर्ग सब तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा के साथ रह गए और ” गूंगी गुड़िया ” अलग हो गयी.
पुरानी पार्टी को सिंडिकेट कहा जाने लगा और जो धड़ा इंदिरा गांधी के साथ अलग हुआ उसे इंडीकेट कहा गया.
नेताओं ने तो बड़ी आसानी से अपनी अपनी आस्था बदल ली पर पार्टी असल में तो जनता जनार्दन से होती है. जनता के वोट से चलती है पार्टी.
जनता इंदिरा गांधी के साथ थी. उन दिनों गांधी परिवार का करिश्मा ही कुछ ऐसा था.
जनता जनार्दन ने सिंडिकेट को लतिया दिया और इंदिरा को सिर आँखों पे बैठा लिया.
पर आज सपा में स्थिति ऐसी नहीं है. अखिलेश सपा के विभाजन की ओर बढ़ रहे हैं.
वही कहानी दोहरायी जायेगी.
Old Guard नेताजी के साथ है.
अखिलेश को लगता है कि युवा समाजवादी उसके साथ जाएगा.
नेताओं का विभाजन तो बड़ी आसानी से हो जाता है.
Public बेचारी बड़ी परेशान है. बड़ा धर्म संकट है.
गाँव गिरांव में बूढ़े बुज़ुर्ग सिर्फ और सिर्फ नेता जी को जानते मानते हैं.
उनके लिए सपा का मतलब नेता जी.
उधर युवा …….. अखिलेश को बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है कि यदुवंशी युवा उनके साथ हैं. यादव युवाओं की पहली पसंद मोदी हैं.
अखिलेश तो दूसरे नंबर पे हैं.
सपा में यदि विभाजन हुआ तो मोटे तौर पे 30% सपाई floating mode में आ जाएगा और उसकी स्वाभाविक पसंद भाजपा होगी.
सपा के core वोट में भी बड़ा हिस्सा मुलायम के साथ ही जाएगा.
सबसे बड़ा धर्मसंकट मुस्लिम वोटर के सामने होगा. अभी लगभग 60% मुसलमान सपा के साथ है. अगर सपा बंटी तो बेचारा मुसलमान तो आशिक के दिल जैसा हो जाएगा.
इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा कोई वहाँ गिरा.
अखिलेश ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं. सपा में उनकी कोई औकात नहीं है.
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