क्या जानते हो तुम, के मैं तुम्हारे प्रेम उपवास में हूँ..
कितने निष्ठुर हो तुम सब की पीड़ाएं हरना चाहते हो…
और एक मैं..
मेरी झोली पीड़ाओं से भरना चाहते हो..
मेरे नयन तुम्हे ढ़ूढंते है तुम्हे देखते हैं…
नेह से भरे ये दो ठीकरे …
प्रतीक्षा की पीड़ा का जल पीते हैं…
मैं मेरे उपवास की हर परीक्षा पार करती हूँ..
जब तुम्हारा पुरुष मन भटकता है,
सुन्दर कलियों, अधखिली कलियों पर
आकर्षित हो मचलता है…
मेरे हृदय में उठे जलन के फफोले फूटते है रिस्ते हैं..
और मैं पीड़ा की घूंट गटकती हूँ..
पर मेरा उपवास नहीं टूटता …
तुम्हें पाने की चाह नही है मुझे..
तुम्हारे हो जाने की मनोकामना लिए ..
तुम्हारे हृदय की चोखट पर सर झुकाए बैठी हूँ..
जब जब तुम कहते हो तुमसे प्रेम नही..
द्रवित हृदय लिए भीतर ही भीतर टूटती हूँ..
हाँ!!! मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ …
मेरे ईश सब कुछ तुझे समर्पित किया है मैंने …
तेरे चरणों को अश्रुओं से पखारती हूँ…
तेरी आँखों में देख अपनी देह सवांरती हूँ…
रोज़ प्रेम के फूल लिए तेरी प्रतीक्षा में बाट निहारती हूँ…
मैं प्रेम प्रतीक्षा में सब हार बैठी हूँ…
मेरी नींदों के अधिकार तुमने ले लिए…
मेरे सपनों में पग तुम्हारे ही पाती हूँ…
हे प्रिय!! अब निर्जल निराहार रहने लगी हूँ….
मेरे देव प्रेम प्रतीक्षा में आस का दिया जलाए
बैठी….
मैं प्रेम में…
तुम्हारे प्रेम को पाने की मनोकामना लिए, पूर्ण विश्वास में हूँ…
हाँ!! मैं तुम्हारे प्रेम उपवास में हूँ….||
– मोनिका शर्मा ‘सुमित्रा’