आपने कभी 112 किलो के 22 साल के छोकरे को देखा है? सिगरेट पीते हुए, फिश एंड चिप्स का सबसे बड़ा पैकेट खाते हुए, कोक या बियर की कैन थामे हुए…
वह 22 साल का है, मस्त है, अभेद्य और अजेय है…
अब उसी को 42 साल की उम्र में फिर से देखिएगा. वह 145 किलो का हो चुका होगा. दो दो बाईपास हो चुके होंगे. डायबिटीज की दवाई से आगे, इन्सुलिन पर आ चुका होगा. शायद दोनों घुटने रिप्लेस हो चुके होंगे. पर सिगरेट, बियर की कैन, फिश एंड चिप्स का डिब्बा अब भी नहीं छूटा होगा.
क्या कहते हैं इस नियति को? किसी भी हालत में कुछ भी नहीं सीखने की जिद को? मूर्खता… आलस्य… आत्महत्या करने की वृति?
हिंदुओं का कोई भी उपक्रम होता है, कहीं भी चार हिन्दू जुटते हैं, कुछ ऐसी ही आत्मघाती मूर्खता देखने को मिलती है. वैसा ही बौद्धिक आलस्य…
कल कुछ मित्र दीवाली के सामूहिक आयोजन के अवसर पर मिले. वहाँ मैंने कहा- यह आयोजन सिर्फ एक समारोह मनाने का आयोजन नहीं है. यह अपनी हिन्दू आइडेंटिटी को सब्सक्राइब करने का एक अवसर है…
तो एक मित्र ने पूछा- इसकी जरूरत क्या है?
मैंने समझाने की कोशिश की, कम्युनिटी आइडेंटिटी एक ऑटोमेटिक घटना नहीं है. हम किस आइडेंटिटी को सब्सक्राइब करते हैं, यह एक सजग निर्णय है.
हम हिन्दू अनायास नहीं हो गए. हमने हिन्दू होना चुना है. जिन्होंने नहीं चुना है, वे धीरे धीरे सेक्युलर, अहिन्दू, हिन्दू विरोधी वामपंथी होते गए.
कालांतर में या एकाध पीढ़ी में धर्म परिवर्तित कर के मुस्लिम या क्रिस्चियन भी हो जाएंगे.
दुनिया की डिफ़ॉल्ट सेटिंग हिन्दू होना नहीं है… आपको हिन्दू होना चुनना होगा… नहीं तो डिफ़ॉल्ट सेटिंग इनस्टॉल हो जायेगा…
यह discourse मेरे लिए नया नहीं है. अपने मिलने वाले हर हिन्दू को मैं समय-समय पर इस दवाई का थोड़ा थोड़ा डोज़ देता ही रहता हूँ.
उन सज्जन की प्रतिक्रिया भी नयी नहीं थी. एक एक्सप्रेशन आता है चेहरे पर, जैसे किसी ने एक बच्चे को कड़वी दवाई पिला दी हो. कुछ जिद्दी बच्चे की तरह दवाई को थू थू करते हैं. कुछ तो बिलकुल उल्टी कर देते हैं… तुम कम्युनल हो, तुम्हारी सोच बीमार है, तुम्हारे मन में घृणा भरी है…
खैर, उन सज्जन ने दवाई उलटी नहीं की. समझदार बच्चे की तरह चेहरे पर मामूली कड़वाहट के साथ दवाई निगल गए. अगर फिर अगली बार अगली दीवाली या होली पर आएंगे तो अगली चम्मच पिलाऊंगा.
पर हिन्दू समाज मुझे उस बीमार 145 किलो के मरीज जैसा लगता है जिसका दो-दो बाईपास ऑपरेशन हो चुका है, दोनों घुटने बदले जा चुके हैं… पर उसकी सिगरेट और बियर और चिकन या चिप्स का डिब्बा उससे नहीं छूटता.
अपने भविष्य और नियति के बारे में सोचने से बचने का बौद्धिक आलस्य नहीं जाता… अकाल मृत्यु की ओर अग्रसर यह मरीज मेरी दो चम्मच दवाई मुँह बना कर निगल भी ले तो क्या बदल जायेगा?
…पर फिर भी दवाई देते रहिये… दो बूँद जिंदगी की…