हमारी संस्कृति भोगवाद को बढ़ावा देने की नहीं आत्मिक उन्नति को बढ़ावा देने की थी. इसलिए मनीषियों ने शरीर, इंद्रिय और मन पर विजय पाने के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था की जो जिताहारी बना सके क्योंकि अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने के लिए आहार पर विजय पाना आवश्यक है.
आहार पर विजय पाने के लिए ही व्रत और उपवास की व्यवस्था की गयी.
इससे बहुत सी शारीरिक व्याधियाँ तो नष्ट हो ही जाती हैं मानसिक व्याधियाँ का शमन के लिए भी अमोध उपाय है. आज बहुत से पाश्चात्य डॉक्टर भी इस बात को स्वीकार करते हैं-
” लंघनं परमं औषधम ” आयुर्वेद का बुनियादी सूत्र है.
महात्मा गाँधी ने भी व्रतोपवास को आत्मशोधन का सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया था.
व्रत और उपवास एक वैज्ञानिक आचरण है इसमें संदेह नहीं किया जा सकता है पर सही विधि से किया जाए तभी उसका लाभ मिलता है, नहीं तो जो आजकल होता है उसका अनुभव सबको है ही क्योंकि…………….. अधूरा ज्ञान अज्ञान से ज्यादा खतरनाक होता है.
चंद्रमा का असर हमारे मन पर पड़ता है यह अब सर्वविदित है फिर भी जिन्हें संदेह हो वो विचार करें कि अष्टमी और पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार-भाटा क्यों आता है. अष्टमी और चंद्रमा का प्रभाव बाकी दिनों से ज्यादा होता है क्योंकि अष्टमी को चंद्रमा आधा और पूर्णिमा को पूरा रहता है.
जल पर उसका प्रभाव ज्यादा होता है और मनुष्य शरीर में 70% जल होता है तो मनुष्य पर भी चंद्रमा का असर होना स्वभाविक ही है. हमारे जो भी व्रत हैं वो तिथियों के आधार पर किए जाते हैं और तिथियाँ चंद्रमा के अनुसार निर्धारित की गयी हैं.
उपनिषदों में शरीर को रथ, इंद्रियों को घोड़ा और मन को घोड़े की लगाम से अलंकृत किया गया है. एकादशी को चंद्रमा आकाश के ग्यारहवीं कक्षा में स्थित रहता इसलिए दशों इंद्रियों पर मन के निग्रह का उचित समय माना गया क्योंकि इस समय की गयी साधना तुरंत फल देगी. यह इसका आध्यात्मिक पक्ष है.
वैज्ञानिकों के शोध ने साबित किया है कि 15 दिनों में एक बार फल दूध का आहार लेने से पाचन तंत्र को आराम मिलता है जिससे उसकी कार्यक्षमता बढ़ती है और पाचन तंत्र सही ढंग से काम करता रहेगा तो हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहेगा यह तो निर्विवाद तथ्य है.
रविवार, मंगलवार या कोई भी वार के व्रत में बिना नमक का खाना खाने का नियम है. वैज्ञानिक मान रहे हैं कि सप्ताह में एक दिन नमक छोड़ देने वाले को बीपी की समस्या कम होती है. हर व्रत के पीछे कुछ रहस्य जरूर है पर हम उसको जानने का प्रयास ही नहीं करते हैं.
देखी-सुनी बातों के पीछे भागते रहते हैं बिना विचारे जिसके फलस्वरूप असली उद्देश्य तो कहीं पीछे छूट जाता है और दिखावा, ढकोसला हावी हो जाता है.
व्रत का लाभ मिलने की जगह नुकसान होता है और नई पीढ़ी नुकसान को देखकर इनसे दूर होने लगती है.