कहते हैं जो हर इश्क़ ख़ुदा की नेमत समझकर, उसे इबादत की तरह करता है, एक दिन वो ख़ुद इश्क़ बन जाता है.
रेखा के जीवन में जब भी इश्क़ नाज़िल हुआ, उसके चेहरे के नूर को बढ़ा गया और साथ में चार चाँद लगा गया उसकी अदायगी को. आप रेखा से जब भी रूबरू होते हैं, चाहे परदे पर ही सही आपको अभिनय की उस उत्कृष्ट सीमा के दर्शन होते हैं, जहां अभिनय समाप्त हो जाता है और वास्तविकता शुरू होती है. कारण फिर वही है, कि जब कोई अपने किरदार को वास्तविक चरित्र में उतार लेता है तो आपको अभिनय से अभिनेता को हटा देना पड़ता है और उस व्यक्ति के वास्तविक चरित्र को उभारना पड़ता है.
उभारना पड़ता है, कहना भी गलत होगा, ये कहना अधिक उपयुक्त होगा कि अभिनय उस अभिनेता में इतना जीवंत हो उठता है कि उसे ख़ुद ये समझना मुश्किल हो जाता है कि वो अभिनय है या वास्तविकता.
लेकिन रेखा के लिए ये इतना भी आसान नहीं था. उसे उस समय अपने अभिनय को पकड़ कर रखना था जब वास्तविकता हावी हो रही थी. जी हाँ हम बात कर रहे हैं फिल्म सिलसिला की. सिलसिला में वो मुझे पूरी तरह एक अभिनेत्री ही नज़र आई. क्योंकि वो रोके हुए थी उसमें वास्तविकता को उतरने से. इस फिल्म में जया भादुड़ी का अभिनय वास्तविकता की ओर अधिक मुखर लगा मुझे.
ख़ूबसूरत की चुलबुली मंजू से लेकर आस्था की मानसी तक का सफ़र करते हुए रेखा ने जिन परतों को अपने चेहरे पर ओढ़ा, वो उसके अनुभव की पूरी एक क़िताब है, जिसका हर पन्ना अपनी कहानी कहता हुआ-सा लगता है.
रेखा अपनी सारी कहानियों की एकमात्र नायिका है, जिसके जीवन में नायक आते जाते रहे. लेकिन उस क़िताब की किसी नायिका को वो अपने साथ ले जा न सके. क्योंकि रेखा एक larger than life चरित्र है और किसी में इतनी कूवत नहीं कि अपनी ज़िंदगी को उसके नाप का कर सके. हर नायक उसके व्यक्तित्व के आगे बौना ही रहा और वो जाते हुए अपना “कुछ” रेखा में छोड़ गया और रेखा बड़ी होती चली गयी…
उम्र जब सीढियां चढ़ती है, तो नीचे की सीढियां देह की तरह सिकुड़ती जाती है और ऊपर का आसमान विस्तृत होता जाता है, रेखा का उम्र से यही ताल्लुक है. रेखा उस समन्दर की तरह है जिसके आँखों के किनारे पर लहरें टूटती गयी और झुर्रियों के रूप में जमा होती गयी. लेकिन सागर की असीमता के आगे टूटे किनारों पर नज़रें कहाँ टिकती है.
यूं तो हर औरत या कहें हर अभिनेत्री खुद को चिरयौवना बनाए रखने के प्रयास में बहुत कुछ करती है, रेखा ने भी किया, योग. भोग से योग तक की यात्रा को पूरा-पूरा जीने वाली रेखा के आभामंडल में परिपक्वता तो बढ़ती गयी लेकिन अपने अन्दर की बच्ची को उसने सदा जीवित रखा और साथ ही जीवित रहा बच्चों के लिए लगाव और ममता. इसलिए रेखा, जिन सह-अभिनेताओं और अभिनेत्रियों से जुड़ाव अनुभव करती हैं, उनके बच्चों को मिलने अक्सर जाया करती है.
आपने हॉलीवुड की ऐसी कई फिक्शन मूवीज़ देखी होंगी जिसमें कोई वैम्पायर अपनी यौवन ऊर्जा को बनाए रखने के लिए युवा या बच्चों से उनकी ऊर्जा चुरा लेती है और फिर से युवा हो जाती है. लेकिन रेखा एक ऐसी आत्मा है जो बच्चों से मिलकर उन्हें अपनी ऊर्जा दे आती है और उनके प्रति ममता से स्वत: ही उसकी त्वचा में ऊर्जा यूं भर आती है जैसे किसी माँ की छाती में किसी अनजान रोते बच्चे की किलकारी से दूध भर आता है. तभी उसकी उम्रदराज़ देह में उसकी आत्मा आज भी युवा है.
रेखा के बारे में एक बात ये भी सुनने में आई कि वो कभी भी दोपहर के एक बजे से पहले फोटो शूट नहीं करवाती थी और फोटो शूट के समय अपने सामने इतने बड़े आईने लगवाया करती थी कि वो खुद को हर एंगल से देख सके. कहते हैं एक उम्र के बाद सुबह उठने के समय चेहरे पर जो सूजन आ जाती है वो दोपहर तक ही उतर पाती है. तो इससे पहले फोटो शूट करवाना रेखा को पसंद नहीं था.
अपनी सुन्दरता के लिए सजग होने के बावजूद और फोटो शूट के लिए तरह-तरह के वेस्टर्न ड्रेस पहनने के बावजूद, रेखा किसी भी फ़िल्मी पार्टी या इंटरव्यू में हमेशा गोल्डन साड़ी में ही नज़र आती है, साथ में छोटा सा पर्स, चोटी में परांदा और माथे पर बड़ी सी बिंदी. ये रेखा के उस चारित्रिक गुण को दर्शाता है कि चाहे वो दैहिक स्तर पर कितने ही परिवर्तन और अनुभव ग्रहण करती रहे लेकिन उसकी आत्मा हमेशा तटस्थ रहती है.
– माँ जीवन शैफाली
(चित्र साभार बॉलीवुड फोटोग्राफ़र जयेश शेठ )
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