और हमारे नायक ने अभी-अभी ब्लॉग की दुनिया में अपना कदम रखा है…. सारे ब्लॉग्स में से ठहरना तो उसे नायिका के ब्लॉग पर ही था….. सो ठहर गया…. एक आदत-सी बन गई, रोज़ नायिका के ब्लॉग को पढ़ना….. कभी एक-दो टिप्पणियाँ भी डाली गई होगी……. अब इतनी सारी टिप्पणियों के बीच नायक की किसी टिप्पणी को ख़ास तवज्जो नहीं दी गई, फिर भी नायक नायिका के जीवन में अपना नाम दर्ज कर चुका था…
फिर एक समय आया, नायिका के ब्लॉग पर पोस्ट आना बंद हो गई…. एक दिन बीता, दो दिन बीते…. कई दिन बीत गए….. अब जब किसी की आदत हो जाए तो फिर कितना मुश्किल होता है उसके बिना रहना ये नायक के पहले ई-मेल से पता चलता है जो उसने नायिका को लिखा….. पूरी तरह से औपचारिक ….ऐसा नायक का कहना है कि उसने पूरी तरह से कोशिश की थी एक औपचारिक ई-मेल करने की.
चूँकि कहानी इस नए युग की है तो ब्लॉग, ई-मेल जैसी बातें बहुत ही आम है….. सो नायक का पहला मेल कुछ यूँ था…..
ये खामोशियाँ
मैं जानता हूँ कि सब कुछ ठीक होगा फिर भी खैरियत पूछने से खुद को न रोक सका. सात दिन के सातों रंग हो गये अब तो अपने ब्लॉग पर से खामोशी का नक़ाब सरकाइये.
दुष्यंत कुमार कह गये हैं – “ये ज़ुबान हमसे सी नही जाती. ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती”..
और ये शेर आपके ब्लॉग के लिये – “एक आदत सी बन गयी है तू. और आदत कभी नहीं जाती”..
शुभ कामनाओं सहित
– नायक
नायक को ख़त लिखे हो गया पूरा महिना, नायिका की ओर से कोई जवाब नहीं आया…….. नायक उस ख़त को भूला तो नहीं था दिमाग़ के किसी दबी हुई पर्त में स्मृति चिह्न बनकर बैठा था………….
पूरे एक महिने के बाद नायिका का जवाब आता है……….
मुझे नहीं पता था कुछ लोगों के जीवन का हिस्सा हो चुकी हूँ मैं…… आपका मेल पढ़ा तो आश्चर्यचकित रह गई ……प्रशंसा के लिए धन्यवाद………. कुछ व्यक्तिगत कारणों से कलम घायल हो गई थी, थोड़ा लड़खड़ाकर लिखने का प्रयास कर रही हूँ… आप जल्द ही पढ़ सकेंगे…
सूत्रधार – नायक कौन है, क्या करता है, ये अब भी नहीं बताया जा रहा है…. नाम हमारी कहानी का चाहे नायिका हो लेकिन हमारे समाज और फिल्मों की तरह कहानी पूरी तरह से पुरुष प्रधान है…..
बकौल नायिका – मैं तुम्हारी तुम, फिर तुम तुम कहाँ रहे वो तो मैं हो गई, अब तुम तुम भी कहते हो तो लगता है मैं ही कह रही हूँ …
बहरहाल, हम अभी नायक और नायिका के बीच हो रहे शुरुआती संवाद की बात कर रहे थे…. नायिका की ओर से पूरे एक महीने बाद जवाब जब नायक तक पहुँचता है तो नायक की खुशी का ठिकाना नहीं रहता.
पता है क्यों?
बकौल नायक – आपका ब्लॉग मेरे लिए ब्लॉग के अमिताभ बच्चन की तरह हुआ करता था- इतने सारे ब्लॉग में से सिर्फ आप ही के ब्लॉग पर आकर रुक जाता था.
तो जनाब नायक की तरफ से नायिका के ई-मेल का जवाब यूँ गया…………….
बेग़म अख्तर गा रही हैं, शायद सुदर्शन फ़ाकिर का क़लाम है – ज़िंदगी कुछ भी नहीं फिर भी जिये जाते हैं! तुझपे ए वक़्त हम एहसान किये जाते हैं!!
आज की तारीख मे आपका जवाब आना भी एक संयोग हो गया – ज़रा देखिये मेरा संदेश भी 18वीं तारीख को लिखा गया था, मेरे लिये आपकी कलम, घायल ही सही, फिर भी 18वीं तारीख को ही उठी.
ये सच है कि बीच मे एक महीने का फासला है, पर इतना फासला तो होना ही चाहिये… बशीर बद्र कह रहे थे – ये नये मिजाज़ का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो!
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अभी तक आप मिले सूत्रधार से, और पढ़े नायक और नायिका के एकदूसरे को लिखे ख़त “तुम कौन हो?” और “प्रिया” …..
(नोट : ये संवाद काल्पनिक नहीं वास्तविक नायक और नायिका के बीच उनके मिलने से पहले हुए ई-मेल का आदान प्रदान है, जिसे बिना किसी संपादन के ज्यों का त्यों रखा गया है)