नमो इफैक्ट : पहली बार आगे बढ़कर फैसले ले रहा है भारत

मेरिका से बढ़ती नजदीकियों और परमाणु सप्लायर समूह में शामिल होने की भारत की जी-तोड़ कोशिशों के बीच ही कुछ पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों ने एक नया शिगूफ़ा छेड़ा है. इनका कहना है कि चीन और पाकिस्तान को नजरंदाज कर अमेरिकन-यूरोपीय देशों से भारत की बढ़ती निकटता देश के दूरगामी हितों को बाधित करेगा.

ये फिर से वही पुराना राग अलाप रहे हैं कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं! स्वाभाविक है कि इनमें से ज़्यादातर वामपंथी हैं. आधुनिक भारत में भी ‘शल्यों’ की कमी नहीं.

जरा इनसे कोई पूछे, तो क्या भारत इनके चरणों में जाकर गिर पड़े, गिड़गिड़ाए, दया की भीख माँगे? अपनी सीमाओं और हितों की कीमत पर इनसे समझौता करे?

पहली बार विदेश नीति के मोर्चे पर ऐसी सक्रियता और त्वरित क्रियाशीलता दिखाई दे रही है. पाकिस्तान से लेकर चीन तक हड़कंप मचा हुआ है! वरना विदेश नीति के मोर्चे पर भारत एक लुटा-पिटा-चुका देश रहा है. नेहरू के गुटनिरपेक्ष और पंचशील के साये से बाहर निकलने में भारतीय विदेश नीति को लंबा वक्त लगा.

कितना खोखला था, पंचशील और गुटनिरपेक्ष का वह आदर्श कि जिसके साथ मिलकर उसकी नींव रखी गई, मसौदे तैयार किए गए, कसमें खाई गईं, हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगाए गए, उसी देश ने भारत पर हमला कर लाखों वर्गमील ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया और हमारे तत्कालीन प्रधानमन्त्री कबूतर उड़ाते रह गए!

क्या तटस्थता संभव है? एक साधारण व्यक्ति भी इस समझ के साथ जीता है कि जिसमें उसका फ़ायदा होगा वह उसी पक्ष में रहेगा, उसी पथ का अनुसरण करेगा! एक व्यक्ति के बौद्धिक अहंकार को तुष्ट करने के लिए पूरे राष्ट्र का भाग्य दाँव पर नहीं लगाया जा सकता! पर लगाया गया!

और उससे बुरा यह हुआ कि व्यक्तिवादी राजनीति तथा चरण-वंदना की प्रवृत्ति के कारण बाद के दशकों में भी भारत की विदेश नीति उन्हीं खोखले आदर्शों का अनुसरण करती रही.

पहली बार ऐसे लग रहा है कि भारत आगे बढ़कर फैसले ले रहा है. हम अक्सर हद से ज़्यादा सुरक्षात्मक मुद्रा में जीने को अभिशप्त रहे हैं, अब जाकर थोड़ी आक्रामकता दृष्टिगोचर हो रही है.

पाकिस्तान बेबस, लाचार नज़र आ रहा है. चीन भारत के बिछाए जाल में घिरता दिख रहा है. अभी तक वह पाकिस्तान के बहाने हमें घेरता आ रहा था, आज भी कुछ हद तक वह यह सब कर रहा है. पर अब भारत ने उसे उसके घर में घेरना शुरू किया है.

वियतनाम और जापान से भारत की नज़दीकी बढ़ती जा रही है. अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में चीन अलग-थलग पड़ता जा रहा है. माना कि चीन हमसे बहुत आगे है, शक्तिशाली भी, पर क्या उसके डर के मारे हम शुतुरमुर्ग बन जाएँ?

याद कीजिए 2011 में ही वियतनाम हमसे ‘ब्रह्मोस’ मिसाइल खरीदने वाला था, पर चीन के डर से तत्कालीन यूपी ए सरकार ने उस क़रार में कोई रूचि नहीं दिखाई थी.

आज भारत सरकार उस मिसाइल को न केवल वियतनाम को बेचने के रास्ते पर बढ़ चला है, बल्कि उसके अन्य खरीददारों में थाईलैंड, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, जापान जैसे संभावित देशों के भी नाम हैं. चीन की आपत्तियों के बावजूद भारत सरकार यदि इस दिशा में आगे बढ़ रही है तो इस साहस का सम्मान करना चाहिए.

केवल यही उदाहरण नहीं, बल्कि चाहे विदेशों में फंसे भारतीयों को सकुशल और सुरक्षित निकालने का मामला हो, चाहे अफगानिस्तान, ईरान, क़तर, सऊदी अरब जैसे मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन जुटाना हो, उनके साथ हुईं तमाम महत्त्वपूर्ण संधियाँ हों, चाहे स्विट्जरलैंड, मैक्सिको, अमेरिका का एनएसजी के लिए ताजा समर्थन हो, चाहे मिसाइल टेक्नोलॉजी वाले मज़बूत समूह में भारत को शामिल करना हो-ऐसे तमाम मोर्चों पर ऐसी सक्रियता, ऐसी सफलता आपको पहले कभी दिखी?

एक बार अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से पूछिए, आपको उत्तर भी मिल जाएगा और यह भी पता चल जाएगा कि क्यों मोदी जी बाक़ियों से अलग हैं, विशिष्ट हैं!

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