“स्विट्जरलैंड की 77 प्रतिशत आबादी ने सरकार द्वारा प्रस्तावित भारी-भरकम राशि(लगभग 1,75000 वयस्कों तथा 45000 अवयस्कों के लिए) लेने से मना कर दिया!
“अमेरिका ने अपनी मानवाधिकारवादी एवं लोकतांत्रिक छवि को दाँव पर लगा 9/11 की घटना को अंजाम देने वाले समुदाय के लिए कठोर जाँच-प्रक्रिया की पद्धत्ति अपनाई और वहाँ के नागरिकों ने इसके विरुद्ध कोई चूँ-चा नहीं की”
“सार्ली आब्दो पर हुए हमले के बाद पूरा फ़्रांस आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट था, वहाँ कोई छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी स्वर नहीं सुनाई पड़ा”
“जापान के बच्चों से जब पूछा गया कि यदि शांति और अहिंसा का उपदेश देने वाले आपके भगवान बुद्ध सेना लेकर आपके देश पर हमला कर दें तो उनका उत्तर था, तो हम उनसे लड़ेंगे और उन्हें मार गिराएँगे”
ऐसे तमाम प्रसंग आपने सुन रखे होंगे या जानते होंगे. मुद्दा यह बताना है कि एक होता है वैयक्तिक चारित्र्य और एक होता है राष्ट्रीय चारित्र्य. व्यक्ति-चारित्र्य की दृष्टि से हमारा राष्ट्र एक आदर्श राष्ट्र रहा है, पर राष्ट्रीय चारित्र्य! इस कसौटी पर हम कभी खरे नहीं उतरे.
हम निजी जीवन में सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा आदि मानवीय मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखते हैं. हम दिए गए वचन को निभाने के लिए अपने प्राण तक दाँव पर लगाने को तैयार रहते हैं. विश्वासघात हमारे लिए सबसे बड़ी बुराई है. इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब हमारे राजाओं-शासकों ने अपना एक वचन निभाने के लिए सर्वस्व दाँव पर लगा दिया.
वीरता, शौर्य, पराक्रम की भी हममें कभी कोई कमी नहीं रही. ऐसे-ऐसे साहसी सूरमा हमारे यहाँ हुए जो प्रतिद्वन्द्वियों को धूल चटाने की सामर्थ्य रखते थे, रखते हैं, पर अपने किसी अहंकार, व्यक्तिगत मान-अपमान, काल्पनिक आदर्श, झूठे सिद्धांत के फेर में हमने राष्ट्रीय हितों को तिलांजलि दे दी.
हम शत्रुओं की वीरता से जितना नहीं हारे उससे अधिक अपनी कमजोरियों से हारे. हमने कभी भी घटनाओं-प्रतिघटनाओं, स्थितियों-परिस्थितियों का विश्लेषण राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया. हमारा इतिहास पराजय का नहीं, संघर्ष का है, पर यदि हमने राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी होती तो हमारा इतिहास विजय का इतिहास होता! हम कभी गुलाम नहीं बनते!
हमने इतिहास से कोई सीख नहीं ली. इसीलिए हमारे वर्तमान की तस्वीर भी बदरंग और धुंधली ही नज़र आती है. हम जाति, पंथ, क्षेत्र में बुरी तरह बंटे हैं. जिसमें हमारा फ़ायदा, वही हमारा क़ायदा-हमारी नीति बनती जा रही है. अधिकारों और सुविधाओं की माँग चारों ओर है, पर त्याग और कर्त्तव्य का कहीं नामो-निशान नहीं है. हम चटखारे ले-लेकर इसके या उसके भ्रष्ट या बेईमान होने की बातें तो खूब करते हैं, पर क्या कभी हमने सोचा है कि अपने स्तर पर, अपने दायरे में हम भी उन्हीं कमजोरियों के शिकार रहे हैं या हो जाते हैं.
हम अपने सार्वजनिक या राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों के प्रति कितने गंभीर हैं, यह आपसे छुपा नहीं. आए दिन होने वाले धरने-प्रदर्शन-आंदोलन में सार्वजानिक संपत्ति की क्षति राष्ट्रीय-चारित्र्य के अभाव की कहानी बयाँ करती है.
लोग निजी जीवन में धार्मिक हैं, आध्यात्मिक हैं, सिद्धान्तवादी हैं, आदर्शवादी हैं, पर उनमें राष्ट्रीय चिंतन व चारित्र्य का अभाव है. मुझे क्या, मेरा क्या का चिंतन हावी है. “भगत सिंह, विवेकानंद” पैदा तो हों पर पड़ोसियों के घर! अपने बच्चों को तो यही ज्ञान देंगे कि कीचड़ में पत्थर फेंकोगे तो छीटें पलटकर तुम्हीं पर पड़ेंगी. फिर उस कीचड़ को साफ करने क्या कोई विदेश से आएगा! जो कुछ करना है हमको-आपको ही करना है.
हम आपस में चर्चा करते हैं, ‘फलाँ बड़े नमाज़ी हैं,पाँचों वक्त नमाज़ पढ़ते हैं, अमुक व्यक्ति बड़े धार्मिक हैं, बिना पूजा-अर्चना के कुछ खाते तक नहीं.’ अच्छी बात है, पर इन सबसे देश की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है? अधिकांश अपनी-अपनी दुकान खोले बैठे हैं, संप्रदायों-फ़िकरों की आड़ में अधिकांश अपना-अपना सिक्का चलाना चाहते हैं, लोगों के दिलो-दिमाग में अपनी पैठ बना उनका इस्तेमाल करते हैं. किसी भी जाति-पंथ-क्षेत्र से ऊपर राष्ट्र है, वही होना चाहिए, यहाँ तक कि “पवित्रभूमि” से ऊपर “मातृभूमि” को जब लोग रखना शुरू करेंगे, तब खड़ा होगा राष्ट्र!
लोगों के मंतव्य सुनिए, “ये सरकार बहुत अच्छी है, क्योंकि कर्मचारियों के वेतन-भत्ते खूब बढ़ाती है, ये सरकार बहुत बुरी है क्योंकि टैक्स में कोई छूट नहीं देती, बढ़ा और देती है. ‘आख़िर कब तक हम निजी एवं वर्गीय हितों के आधार पर सरकारों का मूल्यांकन करेंगे”?
अमुक पार्टी बहुत अच्छी है क्योंकि हमारे भाई-बिरादरी से जुड़ी है, क्योंकि लैपटॉप, टी.वी, साइकिल-मोटरसाइकिल बाँटती है! “आखिर कब तक हम इन आधारों पर मतदान करेंगे और लोकतंत्र को चंद धनाढ्यों, कुल-खानदानों के हाथों बेचते रहेंगे?
सच्चा लोकतंत्र तब तक नहीं आ सकता, जब तक मुफ्तखोरी की संस्कृति फलती-फूलती रहेगी! मुफ़्त बिजली-पानी के लालच में हम अराजकों को अपना भाग्य-विधाता चुन लेते हैं, जो साधन-संपन्न हैं, उन्हें आरक्षण की बैसाखी चाहिए, जो आरक्षण लेकर आज अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं, वे सचमुच के वंचितों के लिए यह सुविधा छोड़ना नहीं चाहते. अनुदान व छूट माँगने वालों की कतार लंबी होती चली जा रही है!
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि आज जातियों-समुदायों का सारा संघर्ष स्वयं को पिछड़ा घोषित करने की दिशा में है. जरा विचार करके देखिए कि हमारे भाव-विचार-निर्णय-मूल्यांकन में राष्ट्र किस पायदान पर है और अपना स्वार्थ किस पायदान पर! फिर भी हम बात करते हैं, शासन और व्यवस्था के भ्रष्टाचार की. शासन और व्यवस्था तो हमारा अपना प्रतिबिंब है, चूँकि हम भ्रष्ट और स्वार्थी हैं, इसलिए वहाँ भ्रष्टाचार तो होगा ही होगा! हम अपने व अपने परिवार के लिए जितना ईमानदार हैं, देश और समाज के लिए भी उतना हो जाएँ तो उसी दिन से तस्वीर बदलने लगेगी.
सच तो यह है कि राष्ट्रीय-चारित्र्य के अभाव में व्यक्तिगत उपलब्धियों या वैयक्तिक उज्ज्वल चारित्रिक पहलुओं का भी कोई महत्त्व नहीं होता.
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की तमाम ऊँचाइयों और निजी उपलब्धियों के बावजूद जापानी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने एक दीक्षांत समारोह में उनके हाथों डिग्री लेने से मना कर दिया था, क्योंकि गुलाम देश के नागरिक से यह सम्मान लेना उन्हें स्वीकार नहीं था. आप कितने भी कुलीन, प्रतिभाशाली या ताकतवर समुदाय या जाति से क्यों न आते हों, दुनिया में आपका सम्मान राष्ट्र के सम्मान के अनुपात में ही होगा, न कि जाति-समुदाय के आधार पर.
राष्ट्रीय-चारित्र्य निर्धारित होता है इस बात से कि उस देश के नागरिक राष्ट्र और राष्ट्रीय हितों को किस प्राथमिकता पर रखते हैं. अब आप तय कीजिए कि राष्ट्रीय चारित्र्य की कसौटी पर आप कितना खरे उतरते हैं.
- प्रणय कुमार
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