सुख, सफलता, सत्य, सृजन और सपनों की राह तलाशती चेतना को यह लेख रुचिकर प्रतीत होगा! साथ ही, यहाँ प्रवेश लें या वहाँ, यह करें या वह, इसे चुनें या उसे- इस दुविधा से भी विद्यार्थियों को उबारने में यह लेख सहायक सिद्ध होगा –
समुद्र से पृथक बूँद की अपनी कोई सत्ता नहीं, परंतु वही बूँद जब समुद्र में समाहित हो जाती है तो उसकी सारी लघुता, सारी सीमाएँ स्वयंमेव समाप्त हो जाती हैं और वह भी उस विशाल, उस असीम सत्ता का अविभाज्य अंग बन जाता है.
यही स्थिति हम मनुष्यों की भी है, अहंकार और अज्ञान के कारण हम पार्थक्य-बोध में जीते हैं, स्वयं को प्रमाणित करने के लिए लड़ते-भिड़ते रहते हैं, श्रेष्ठता या हीनता ग्रन्थि के शिकार रहते हैं, परंतु एक बार जब हमें उस असीम का, उस चराचर सत्ता का बोध भर हो जाए तो हम हर पल एक लोकोत्तर आनंद में जीने लगते हैं.
चराचर में एक ही चेतना को देखने लगते हैं, सहजता और सरलता को प्राप्त होते हैं और हमारी समस्त सीमाओं के बंधन अपने-आप टूटने लगते हैं, फिर हम “खंड” नहीं “कुल” के अंश होते हैं, फिर काम-क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष से जकड़ा लघु मानव अचानक एक दिव्य एवं दैवीय आभा से युक्त ‘महामानव’ में रूपांतरित होने लगता है. शायद इसीलिए मानव-जीवन को एक ओर संकीर्ण सीमाओं तो दूसरी ओर असीम संभावनाओं से युक्त माना गया है.
सवाल यह है कि इस दिव्यता की, इस असीमता की अनुभूति हो तो आख़िर हो कैसे? तो जवाब के लिए आइए आपको एक व्यक्ति से मिलवाता हूँ. नाम-“संतोष कुमार दास”, अवस्था-70 वर्ष, चेहरे पर झूलती सफ़ेद दाढ़ी, मस्तक से लिपटा रामनामी दुपट्टा, हाथ में “Sadhus” नामक पुस्तक-स्वाभाविक है कि देखने वालों में उन्हें एक साधु या मठ के संन्यासी मानने का भ्रम पैदा होगा.
उत्सुकतावश मैंने परिचय पूछ ही लिया, पता चला आप रंग और रेखाओं से कैनवास पर तरह-तरह के चित्र उकेरने वाले कलाकार हैं. उनकी सरल, सहज, सम्मोहक मुस्कान ने मुझे जितना आकर्षित किया था, उससे भी अधिक रोचक उनकी बातें थीं. वैसे भी जुड़ना सहज मानवीय वृत्ति है, जब आप किसी से हृदय से जुड़ते हैं तो भीतर ‘कुछ’ खिलता और महकता है और जब टूटते हैं तो भीतर ‘कुछ’ टूटता और कसमसाता है.
खैर, श्री दास- मधुवनी आर्ट्स के रंग और रेखाओं से चित्र उकेरने वाले, अभी हाल ही में आयोजित जयपुर लिटरेरी फ़ेस्टिवल में पुरस्कार-प्राप्त ख्यातिलब्ध कलाकार हैं. पर उनका परिचय देना मेरा ध्येय नहीं, बल्कि उनकी कला-यात्रा का रोचक वृतांत मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ. इस उम्मीद से कि शायद मेरे युवा मित्रों को इससे कुछ प्रेरणा मिले!
हुआ यों कि आपके गाँव- ‘रांटी’, जो कि मधुवनी आर्ट्स के लिए प्रसिद्ध रहा है, वहाँ एक बार एक कला-प्रेमी अमेरिकी दंपत्ति कला को जानने-समझने की दृष्टि से पहुँचे, पर वे मैथिली या हिंदी न जानने की वज़ह से किसी से कोई संवाद नहीं कर पा रहे थे, उन्हें स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए एक अनुवादक की आवश्यकता थी, इस चुनौतीपूर्ण भूमिका का निर्वाह दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले बालक ‘संतोष’ ने बख़ूबी किया. अमेरिकी दंपत्ति “Raymond Lee Owens’ और “Naomi Lee Owens” उस बालक के जीवन में एक अवसर बनकर आए थे.
ध्यान रहे ईश्वर आपको अपने सपने चुनने और उन्हें साकार करने के कम-से-कम एक अवसर ज़रूर देता है. “Naomi” वहाँ दो साल रहीं और मधुवनी आर्ट्स पर उनके शोध में बालक संतोष ने दुभाषिए के रूप में उनकी मदद की.
उसी दौरान संतोष ने अच्छे अंकों से बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और दिल्ली के स्टीफ़नस् कॉलेज से अंग्रेजी में ग्रेजुएशन करने का मन बनाया, पर केवल हमारे सोचने से क्या होता है, नियति भी हमारे लिए कुछ विकल्प चुनकर रखती है. “Lee Owens” दंपत्ति ने उन्हें अपनी प्रतिभा और काबिलियत के अनुसार अध्ययन का विकल्प चुनने के लिए प्रेरित किया, उन्होंने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेजी के तो ढेरों प्रोफ़ेसर हैं, तुम्हें ईश्वर ने अपनी कला के माधयम से सृजन के लिए चुना है, तुम भीड़ का हिस्सा मत बनो, बल्कि उससे कुछ अलग, कुछ बेहतर करो!
ज़रा सोचिए, हममें से न जाने कितने लोग ऐसे किसी प्रेरक के अभाव में अपनी अंतरात्मा की आवाज़ अनसुना कर देते हैं, न जाने कितने लोग अपने सपनों के परवान चढ़ने से पूर्व ही उसका गला घोंट देते हैं! खैर,उस अमेरिकन दंपत्ति की प्रेरणा से “संतोष” ने “Faculty Of Fine Art’s MS University, Baroda” से कला का अध्ययन किया और आगे चलकर एक उच्च कोटि के कलाकार के रूप में कला-जगत् में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई! और दिल को छूने वाली बात यह है कि उनकी पूरी पढ़ाई का खर्च भी उस अमेरिकन दंपत्ति ने उठाया. यानी आप मानेंगे कि इंसानियत की कोई सीमा नहीं होतीं, सीमाएँ तो भूगोल की होती हैं, मानचित्र पर रेखाएँ खींच देने भर से मनावीय रिश्ते खत्म नहीं होते!
अब मैं मूल विषय पर आता हूँ कि कैसे संकीर्णताओं और संकुचितताओं से, सीमाओं और जड़ताओं से मनुष्य ऊपर उठ सकता है? कैसे वह बाल-सुलभ सरलता या अलमस्त योगी की अवस्था को प्राप्त हो सकता है? तो मित्रों, जिस प्रकार योग, ध्यान, समाधि आपको एक लोकोत्तर आनंद का बोध कराती है, उसी प्रकार साहित्य, संगीत, कला या आपकी रूचि का काम आपको एक अलग लोक में ले जाती है, आपमें उच्चतर एहसास जगाती हैं, आपकी संवेदनाओं का विस्तार करती है.
हम बंटे-बंटे रहते हैं, क्योंकि हम जो कर रहे -उससे प्रसन्न नहीं; क्योंकि हम जो कर रहे हैं, उसमें हमारी रुचि नहीं; वह हमारी अंतरात्मा की अभिव्यक्ति नहीं, सारा जीवन औरों के अनुसरण में बिता दिया; अपनी ताक़त, अपनी प्रतिभा, अपनी रूचि की ताउम्र अनदेखी करते रहे; नतीजा-असंतोष, तनाव, कुंठा, अवसाद!
“श्री संतोष कुमार दास”- आज एक उच्चकोटि के कलाकार हैं, कैनवास पर उनकी उँगलियाँ थिरकती हैं, वे चित्र बनाते नहीं, बल्कि चित्र उनके भीतर घटित और अवतरित होता है, सीमाओं के बंधन उन्हें छू तक नहीं गया है, (जहाँ कहीं रचनात्मकता होगी सीमाओं के बंधन ख़ुद-ब-ख़ुद टूट जाएँगे). देश-विदेश में उनके काम की सराहना होती है; हर प्रकार के तनाव, कुंठा और असन्तोष से मुक्त- पूर्ण संतुष्टि, अदम्य ऊर्जा और अलौकिक आनंद से युक्त उनका व्यक्तित्व है तो केवल इसीलिए कि उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनी; अपनी रूचि, प्रतिभा को पहचाना.
मित्रों, यदि आप भी अपने जीवन में कुछ महत्तर करना चाहते हैं, भीड़ का हिस्सा नहीं, चेहरा बनना चाहते हैं तो अपनी क्षमता, अपनी रूचि को पहचानिए और उसके अनुसार सपने बुनिए, फिर उसे साकार कीजिए.
याद रखिए, जिंदगी दुबारा नहीं मिलती!
- प्रणय कुमार