आप शादियों के सीज़न में किसी भी साड़ी की दुकान पर चले जाइए … आपके यह कहते ही कि “भैया, साड़ियाँ दिखाइये ” दुकान वाले का पहला प्रश्न होगा कि ” लेने देने की दिखाऊं या अच्छे में दिखाऊं?”
मतलब इस प्रश्न से इतना तो सिद्ध हो गया कि लेने देने की साड़ियाँ अच्छी नहीं होतीं !
अब अगर आप वाकई में लेने देने की साड़ियाँ ही खरीदने गए हैं तो दुकानदार का अगला प्रश्न होगा “कितने वाली दिखाऊं?” उसके पास अस्सी रुपये से लेकर ढाई सौ तक की रेंज मौजूद है.
एक कुशल स्त्री अस्सी से लेकर ढाई सौ तक की सभी साड़ियाँ पैक कराती है. घर जाकर वो पिछले बीस वर्ष का बही खाता खोलती है. सबसे पहले उसे ये देखना है कि किस किस ने कब कब उसे कैसी साड़ियाँ दी हैं?
“अब बदला लेने का सही वक्त आया है .. जैसी साड़ी तूने मुझे दी थी न उससे भी घटिया साड़ी तुझे न टिकाई तो मेरा नाम भी ” फलानी ” नहीं !”
अगर दस साल पहले उस महिला ने सौ रुपये की साड़ी दी थी तो बदला लेने में दस साल बाद अस्सी की साड़ी पचहत्तर में लगवाकर उसके मुंह पर मारी जाती है.
अगर किसी रिश्तेदार के घर का लड़के को जमाई बनाने का सपना संजोये बैठी हो तो उसे ढाई सौ की साड़ी दी जावेगी, अच्छी पैकिंग में, जिसमे थर्माकोल के मोती भी इधर उधर लुढ़क रहे होंगे और दस का करकरा नोट भी सबसे ऊपर शोभा बढ़ा रहा होगा.
ये भी खासी ध्यान रखने की बात होती है कि कहीं ऐसा न हो कि दो साल पहले जिस भाभी ने जो साड़ी दी थी, वापस उसी के खाते में न चली जाए. और अगर चली भी जाए भूल चूक से तो इन लेने देने की साड़ियों के कलर, कपड़े और डिजाइन में इतना साम्य होता है कि दो दिन पहले दी हुई साड़ी भी अगर वापस मिल जाए तो किसी को संपट नहीं पड़ती.
घचपच डिजाइन, चट्ट पीले पे चढ़ता झक्क गुलाबी और भूरे भक्क पर चढ़ाई करता करिया कट्ट रंग! सबसे मजेदार बात यह है कि सब जानते हैं कि लेने देने की साड़ियाँ कभी पहनी नहीं जातीं ! चाहे अस्सी की हों चाहे ढाई सौ की. ये हमेशा सर्क्युलेशन में ही रहती हैं.
ये रमता जोगी , बहता पानी हैं. ये सच्ची यायावर हैं. ये वो प्रेत हैं जो कभी इसे लगीं, कभी उसे लगीं. इधर से मिली, उधर टिकाई और उधर से मिली इधर टिकाई.
एक बेहद कुशल गृहणी यह पहले से पता करके रखती है कि जो साड़ी उसे मिलने वाली है, वह किस दुकान से खरीदी गयी है. वह बेहद प्रसन्नता पूर्वक उस साड़ी को स्वीकार करती है, बल्कि उसके रंग और पैटर्न की तारीफ़ करती है और जल्द ही फ़ाल, पिकू करवाकर पहनने की आतुरता भी दिखाती है और अगली दोपहर ही उसे दुकान पर वापस कर दो सौ रुपये और मिलाकर एक अच्छी साड़ी खरीद लाती है.
और ये भली स्त्रियाँ इन लेने देने की साड़ियों को भी छांटती, बीनती हैं और बाकायदा पसंद करती हैं. साड़ी भी मुस्कुराती हुई कहती है ” हे भोली औरत क्यों अपना टाइम खोटी कर रही है? जिस पर हाथ पड़ जाए वही रख ले.
क्या तू नहीं जानती कि हम तो सदा प्रवाहमान हैं, हम हिमालय से निकली वो गंगा हैं जो किसी शहर में नहीं टिकतीं, अंत में हमें किसी के घर की काम वाली बाई रुपी समुद्र में जाकर विलीन होना है”
इन साड़ियों का अंतिम ठौर घर में काम करने वाली महिलायें होती हैं जिन्हें होली दीवाली के उपहार के रूप में इन्हें दिया जाता है और उसमे भी अलमारी में रखी पंद्रह साड़ियों में से सबसे पुरानी की किस्मत जागती है और वह सबसे पहले अपनी अंतिम नियति को प्राप्त होती है !
– पल्लवी त्रिवेदी