कौन हो तुम?
अचम्भित हो कि फिर मेरे मन में ये सवाल क्यूँ आया? मैं भी हूँ… सच कौन हो तुम? ईश्वर की तरफ से कोई नायाब तोहफा? जिस नियति को मैं कोसती रहती हूँ उसकी तरफ से मेरी तपस्या का फल?
उस नियति ने मुझे तुमसे मिलवाया या तुमने मुझे ढूँढ निकाला? अब भी तुम्हारी लीलाओं से अनभिज्ञ हूँ…… जो जानती हूँ वो बस इतना कि जितनी पीड़ा पाई, जितनी तपस्या की, जितने पुण्य मैंने किए हैं उतने किसी न किए होंगे, तुम्हारा मेरे साथ होना इसका जीता जागता सबूत है….
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं ना समय से, ना नियति से, ना किस्मत से, सारी शिकायतें सारे संशय खत्म हो जाते हैं जब तुम मुझे कभी संजू, कभी संजना कभी संजीवनी, कभी अर्धांगिनी, कभी प्यार, तो कभी अपने ही नाम से पुकारते हो…….
अब भी डर जाती हूँ तो तुम्हीं कहते हो ना कोई बहुत पुरानी सी आदत है.. और आदत तो जाते जाते ही जाती है.. लेकिन इस डर के बाद जो तुम मेरा हाथ थामकर अपने दिल पर रख देते हो तो मेरी दुनिया सिमटकर बस “तुम” हो जाती है…
तुम तुम तुम
मेरी पाँच तत्वों से बनी काया के छठे तत्व……………
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और नायक कहता है –
इस कदर लिपटा हूँ, इस कदर छाया हूँ, ऐसे घेरे हूँ, इतना घुल गया हूँ साँसों में, कि बस किसी ने छेड़ा और मैं तुम में प्रकट………………
(चित्र साभार जयेश शेठ)
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(नोट : ये संवाद काल्पनिक नहीं वास्तविक नायक और नायिका के बीच उनके मिलने से पहले हुए ई-मेल का आदान प्रदान है, जिसे बिना किसी संपादन के ज्यों का त्यों रखा गया है)