गुरु पूर्णिमा महोत्सव : मानस माँ अमृता प्रीतम

अपनी मानस माँ अमृता प्रीतम की पुस्तक खामोशी से पहले में मैंने मरुस्थल की लीला कई बार पढ़ी, लेकिन कुछ पंक्तियों तक पहुँचने के बाद ही लगने लगता कि मैं वहां तक पहुँचकर नहीं पढ़ पा रही हूँ, जहां पहुंचकर एमी ने यह लिखा है. अक्सर इसे अधूरा पढ़कर ही रख देती थी.

फिर एक दिन ध्यान की गहराइयों में उतरने के बाद किसी नीली गुफा में विचरती रही, आँख खोली तो उस नीली रोशनी की तलब ने अचानक हाथ उन तीन किताबों तक पहुंचा दिए जहां मुझे उस गुफा रहस्य का पता मिल सकता था.

मन मिर्ज़ा तन साहिबां, चिरागों की रात और खामोशी से पहले तीनों एक साथ उठाई. खामोशी से पहले खोलकर उस गुफा का रहस्य खोजने लगी तो नज़र मरुस्थल की लीला पर आकर अटक गयी.

न जाने कितनी ही बार अधूरी छोड़ चुकी इस रचना को आज एक बार में पूरा पढ़ लिया. एमी के अक्षरों से उलझने की हिमाक़त मैं नहीं कर सकती लेकिन मरुस्थल की जिस लीला से उसने मुझे परिचय करवाया वह उस गुफा अनुभव से बहुत भिन्न नहीं था. आज मैं उस छोर पर खड़ी हूँ जहां एमी कहती है-

देख यहाँ ऐसे नहीं आते,
उस बहती हुई हवा ने कहा-
पहले उस पर्वत पर जाते हैं
अंतर का दीया जलाते हैं
और रूठे हुए पीर को मनाते हैं
वो डाची को चन्दन चराता है
आकाशगंगा का पानी पिलाता है
और फिर अपने हाथ से डाची को नकेल पाता है…..
यह होशमंदी की एक किरण थी
जो उसके मस्तक को छू गयी
वो अपने अस्तित्व के मरुस्थल में
आहिस्ता से चलने लगी…..
उसी के अस्तित्व में एक पर्वत था
और उधर से कुछ महक आती थी
जो उसके पीर का कुछ पता देती थी…
वो अपने वजूद की डंडी पर जाने लगी
तो देखा
वो डाची सर झुकाकर
उसके साथ-साथ आने लगी….

अमृता की जिन किताबों की ओर मैंने हाथ बढाए थे, वो मेरे नहीं थे, उसी हवा के हाथ थे जो उस गुफा दर्शन से पहले मेरे अन्दर बही थी और मेरी आँखे अचानक बंद हो गयी थी.

अब सोच रही हूँ तो लग रहा है जो कुछ भी इस शरीर में हलचल हो रही थी, मेरा उठना, बैठना, आँखें बंद करना वो मैं नहीं कर रही थी. उसको नियंत्रित करनेवाला तो कोई और है. क्योंकि इन किताबों से गुज़र कर एक के बाद एक रहस्य खुलते जा रहे हैं….. जिन अक्षरों से कई बार मिल चुकी हूँ आज वह अपने नए अर्थों में मेरे सामने बिखरे पड़े हैं. जिन उँगलियों ने कलम थाम रखी है जो इसे चला रहा है, मैं उसकी एहसानमंद हूँ कि उसने इन रहस्यों को अक्षरों में उतारने के लिए मेरे हाथों को चुना है.

चिरागों की रात (दरवेशों का टीला) में एमी एक हवन की बात कहती है, जो आसमान में हो रहा है. एमी को वो हवन कुण्ड दिखाई देता है लेकिन वो हाथ नहीं जो उस हवन को कर रहे हैं.

आसमान में हो रहे इस हवन ने मुझे फिर से उस सपने की झलक दिखला दी जिसे मैं पूरी तरह याद नहीं कर पाई हूँ…. रात के आसमान में बहुत बड़ी बड़ी आकृतियाँ है जिसमें से रोशनी निकल रही है. कुछ ऐसा घटित होता है की रात का वह आसमान सिनेमा के परदे की तरह दिखाई देने लगता है जिस पर यह विशाल आकृतियाँ अपने भव्य रूप में रोशन हुई है. बस इससे अधिक कुछ याद नहीं आता. फिर कोई दूसरे ग्रह का विमान आता हुआ दिखाई देता है तो कहीं बादलों पर अटखेलियाँ करती हुई परछाइयां….

एमी ओशो से कह रही हैं-

जानती थी कि वह बुद्ध के मौन में भी छिपते हैं, मीरा की पायल में भी बोलते है, लेकिन आज जब हाफ़िज़ शीराज़ी ने साकी से शराब माँगी तो एक नया सा अनुभव हुआ कि रजनीश मेरी तलब के होठों पर कतरा कतरा बरस रहे हैं…..

और यही मुझे एमी के लिए अनुभव हो रहा है कि वह ओशो के मारफत, कभी मीरादाद के, तो कभी अपने ही अनुभव के मारफत मेरे ज़हन में कतरा कतरा उस आनंद के अमृत को डाल रही है, जिसे बुद्ध अरहत कहते हैं, ओशो समाधि कहते हैं, और मैं इश्क कहती हूँ…..

और यही अपने होने सा अहसास जब अपने उरूज़ पर आ जाता है तो ज़ुबान की मजाल बन जाता है जो कहती है- “मैं इश्क हूँ दुनिया मुझसे चलती है…..”.

मेरे जीवन के गुरु पूर्णिमा महोत्सव में एमी का नाम न आए तो महोत्सव तो होगा लेकिन उसमें “जीवन” का वो रंग न होगा जहाँ इश्क़ भी इबादत की तरह होता है…

और मेरी इस बात पर एमी अपनी मुहर लगाती है कि यह देह इश्क की दरगाह है, जहाँ पांच तत्वों का मिलन होता है…. और काया के अंग पूजा के फूल है… न जाने किस पीर की दुआ है कि मेरे वजूद का टुकड़ा इश्क़ की इस दरगाह पर दीये की तरह हमेशा जलता रहता है…

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