विज्ञापन का झूठ या झूठ का विज्ञापन!

विज्ञापनों का वस्तुओं की गुणवत्ता से कोई सरोकार नहीं होता! विज्ञापन मृगतृष्णा की तरह है, यह एक भ्रम है, छल है, भोले-भाले मासूम लोगों को अपने मायाजाल में फंसाने का दुष्चक्र है! दुर्भाग्य से सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा वर्ग यानी मध्यम वर्ग ही इसकी चपेट में सबसे ज़्यादा है! विज्ञापन सच को झूठ और झूठ को सच बनाने का आसान जरिया है!

क्या कभी आपने माँ के दूध का विज्ञापन होते देखा-सुना है, क्या कभी आपने अपने गाँव में ‘असली गाय का दूध’ शब्द सुना है? साँच को आँच नहीं, असली को विज्ञापन की जरुरत ही नहीं पड़ती, जब विज्ञापन नहीं थे तो मिलावटी दूध, मिलावटी दवा, मिलावटी मिठाई या मिलावटी खाद्य-पदार्थों का नामो-निशान तक नहीं था.

विज्ञापन उपभोक्तावादी और बाजारवादी संस्कृति की उपज है जिसका एकमात्र लक्ष्य उपभोक्ताओं की गाढ़ी कमाई में सेंध लगाना है, विज्ञापन मनुष्य की इच्छाओं की भभकती आग में घी डालने का काम करता है, वह लोगों में हीनता, कुंठा और अवसाद जगाता है, वह समाज को वर्गों और साँचों में बाँटता है.

ये दिल मांगे मोर, ये प्यास है बड़ी, ऊंचे लोग-ऊँची पसंद जैसे विज्ञापनों से क्या ध्वनित होता है, सच तो यह है कि ये कामनाओं की आग भड़काते हैं और मनुष्य को असन्तोष का पुतला बनाकर छोड़ डालते हैं.

यदि विज्ञापन सच होता तो आज देश में कोई गंजा नहीं होता, यदि विज्ञापन सच होता तो हर नौजवान सलमान खान और हर नवयुवती ऐश्वर्या रॉय होतीं, यदि विज्ञापन सच होता तो न कोई मलेरिया होता, न डेंगू, न स्वाइन फ्लू, न कीटाणु-क्योंकि सारे कीटाणु लाइफबॉय लगाते ही गायब हो जाते, कोई भोंदू नहीं होता- क्योंकि मेन्टोस खाते ही सबके दिमाग की बत्ती जल जाती, यदि विज्ञापन सच होते तो च्यवनप्राश का एक चम्मच बूढ़ों को भी जवान कर देता, यदि विज्ञापन सच होते तो एवरेस्ट की चोटी पर भी लोग सर्दी में गर्मी का मजा ले रहे होते, यदि विज्ञापन सच होते तो सवा सौ करोड़ भारतीय हॉर्लिक्स, बोर्नबीटा या कॉम्प्लान पीकर सैकड़ों ओलम्पिक पदक भारत की झोली में यों ही डाल देते.

यदि विज्ञापन सच होते तो किसी माता-पिता को अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने, शिष्ट-सभ्य बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि एक डिओडोरेंट की बोतल ही इन सब पर भारी पड़ती, एक बार फुसफुसाइए और सैकड़ों लड़कियाँ मुफ़्त में ले जाइए, क्लोज अप इस्तेमाल करते ही अपनी साँसो में अप्सराओं को बसाइए.

भद्दा मज़ाक है ये, जी हाँ, भद्दा मज़ाक-इन विज्ञापनों ने स्त्रियों को केवल और केवल देह में बदलकर रख दिया है. इन विज्ञापनों ने सबसे ज्यादा स्त्रियों और बच्चों का शोषण किया है.

भावनात्मक से लेकर दैहिक-बौद्धिक शोषण तक, इसने अश्लीलता की सारी हदें लाँघ दी हैं. 24×7 ऐसे-ऐसे विज्ञापन दिखाए जाते हैं, जिन्हें आप पूरे परिवार के साथ देख नहीं सकते. बिंदास बोल और दिलकश अदा के नाम पर आख़िर कब तक हम अपनी ही संस्कृति, संस्कारों, मूल्यों की खिल्ली उड़ाते रहेंगे.

बच्चों और स्त्रियों की भाव-भंगिमाओं की अतिरंजनापूर्ण चित्रण के कारण हमारी सहजता, कोमलता, संवेदना तक प्रभावित हो रही है. बाज़ार हमारे घर तक तो बहुत पहले ही प्रवेश कर गया था, अब उसने हमारे मनोजगत में भी गहरी पैठ बना ली है.

विज्ञापन ने भावनाओं और रिश्तों के संसार में भी उठा-पटक मचाना शुरू कर दिया है. विज्ञापन जगत और बाजार ने हँसी और आँसू जैसी स्वाभाविक-सहज क्रिया-प्रतिक्रिया का भी बाजारीकरण कर दिया, कृत्रिमता हमारे व्यवहार से संस्कार तक पर हावी हो चली है, परिवारों-संस्थाओं-रिश्तों का ताना-बाना पहले ही चरमराने लगा था, विज्ञापन ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है.

बाज़ार और विज्ञापन ने नक़ली त्योहारों और “उपहारों” की लेन-देन की एक ऐसी संस्कृति विकसित की, जहाँ भावनाओं का कोई स्थान न रहा. उपहार की कीमत से संबंधों की गहराई मापी जाने लगी, दुःख-सुख के साझीदार अतीत के किस्से हो गए.

ब्रांड-वैल्यू भी आपके अहं को सेंक लगाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं. यह बाज़ार रूपी मछेरे के द्वारा फेंका गया एक जाल है, जिसमें अच्छे-खासे बुद्धिमान लोगों को भी फंसते देखा है मैंने. यह विडंबना ही है कि एक ओर वस्तुओं की ब्रांड-वैल्यू बढ़ती जा रही है, दूसरी ओर इंसान व इंसानियत की घटती. कितना हास्यास्पद है कि व्यक्ति का मूल्यांकन उसके आचार-व्यवहार से न होकर उसके द्वारा प्रयुक्त ब्रांडेड उत्पादों से हो.

तो क्या विज्ञापन बंद कर दिए जाने चाहिए? वस्तुओं की ख़ूबी बताना अनुचित है? बिलकुल नहीं. पर कुछ तो ज़िम्मेदारी तय करनी होगी. कंपनियों की भी, उत्पाद का प्रचार करने वाले सितारों की भी. और उन सबसे अधिक-आप मन-बुद्धि-संवेदना के धनी प्राणी है, प्रकृति ने आपको सोचने-समझने की शक्ति दी है, कृपया बाज़ार जाते समय अपने दिल-दिमाग को घर पर रखकर मत जाइए.

बाज़ार की सार्थकता आपकी ज़रूरतों पूरी करने में है, न कि अपनी जादुई व सम्मोहक शक्ति से आपको घायल कर आपको चिर अतृप्त, अधूरा और असंतुष्ट छोड़ जाने में. सनद रहे, भीतर यदि खाली है तो बाहर की कोई चीज उस खालीपन को भर नहीं सकती.

शेष आप स्वयं समझदार हैं(?)!

  • प्रणय कुमार

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