मिक्सी की तेज घिररर घिररर से नवीन की नींद खुली उसने आँखे मलते हुए बेड के साइड में रखी घड़ी पर नजर डाली तो पाया कि सुबह के पाँच बजे हैं “पौर्णिका.. पौर्णिका…यार बंद करो ये आवाज …इतनी सुबह सुबह क्या बनाने लगीं” …
उसने अपने सिर पर तकिया रखा और लगभग चीखते हुए पौर्णिका को आवाज लगाई पर मिक्सी की आवाज किचन से वैसी ही आती रही थोड़ी देर बाद वो झल्ला कर उठा और किचन की तरफ आया.
“अरे.. आज तो तुम भी जल्दी उठ गए… लेकिन वेट.. आज चाय बाद में मिलेगी… पहले जरा मैं ये दाल पीस लूँ… और उसके बाद सारा कुछ बना लूँ… तब तक .. तुम चाहो तो थोड़ा सा और सो लो” – पौर्णिका ने उसे देखते ही कहा और पहले की तरह अपने काम में लग गई
“सो लूँ?.. इतने शोर में कोई सो सकता है क्या… और तुम ये आज सुबह सुबह क्या करने में लगी हो?” नवीन प्यूरीफायर से एक ग्लास पानी भरते हुए बोला.
“नवीन.. डोन्ट डिस्टर्ब मी… मुझे अभी बहुत काम है..” पौर्णिका ने उससे कहा और सबसे छोटी उंगली के पहले पोर पे अंगूठा रख ऐसे बुदबुदाने लगी मानो याद कर रही हो “सबसे पहले दही बड़ा… फिर पनीर की सब्जी… उड़द की दाल का हलवा… पापड़… चटनी… और… और… हाँ..चने की दाल की कचौड़ी.. ये तो उसकी फेवरिट हुआ करती थी.. ये मैं कैसे भूल गई”
“मेरे हाथ का बना खाना उसे कितना पसंद था… कहता था घर के खाने के आगे ये पिज्जा बर्गर नूडल वूडल सब बेकार हैं… हॉस्टल का खाना खा खा कर… बेचारा… कितना दुबला हो गया था.. वजन भी…” वो काम करते जा रही थी और बोलती जा रही थी पर किससे ये शायद उसे भी पता नहीं था या शायद वो खुद से बातें कर रही थी.
उसकी सारी बातें सुन और पागलों की तरह जुनून में उसे काम करता देख नवीन के दिल में हल्का सा एक धक उठा उसने खुद को संभाला और कहा “ग्यारह साल हो चुके हैं पौर्णिका..”
“अब तक तो उसकी शादी भी हो चुकी होती… क्या पता एक दो बच्चे भी हो जाते.. मैं दादी हो गई होती और नवीन तुम दादा” उसने मानो नवीन की बात सुनी ही नहीं.
“पौर्णिका.. ग्यारह साल हो चुके हैं उसे गए हुए… जब तक हम इंडिया में थे तब तक तो ठीक था.. पर अब एक साल हो रहा है न्यूयार्क आये हुए… यहाँ ये पितृपक्ष… ये.. श्राद्ध.. इन तिथियों का कोई मतलब है क्या” नवीन ने उसके हाथ में पानी का ग्लास दिया.
उसने पानी पीने से मना किया और बोली “क्यों.. क्या यहाँ न्यूयार्क में कोई दूसरे सूरज चाँद निकलते हैं… वही हैं न इंडिया वाले.. मैं ये सब जल्दी से तैयार कर दूँगी.. तुम किसी पंडित जी को ये खिला आना..”
“पंडित… पंडित यहाँ कहाँ मिलेगा” नवीन ने ऐसे कहा जैसे कोई अनोखी बात सुनी हो.
“ठीक है… पादरी तो होंगे.. उन्हें ही खिला देना या सीधे घर पर इनवाइट कर लेना” पौर्णिका को चिंता सिर्फ खाना बनाने की थी और वो उसी में रमी थी.
“पादरी… हुंह.. वो ये सब ढकोसले नहीं मानते… तुम क्यों यहाँ मेरी और अपनी हँसी करवाना चाहती हो.. क्रिश्चन्श पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते” नवीन ने ऐसे कहा मानो सारे अंग्रेज उस पर हँस रहे हैं उसका मजाक बना रहे हैं.
“अजीब बात है… ईस्टर मनाने वाले… पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते.. .ठीक है मैं किसी गरीब को खिला दूँगी… अब ये मत कहना यहाँ गरीब भी नहीं होते” पौर्णिका की आँख में नवीन का बिम्ब धुंधलाने लगा.
नवीन ने उसे अपने गले से लगाया, भर आई उसकी आँखों को चूमा और धीरे से कहा “जानता हूँ ये दुःख बहुत बड़ा है… पर पौरू.. ये सब दिखावा नहीं लगता?”
“नव… मेरा बेटा था वो… उन्नीस साल तक पाला था उसे… उसे गए तो अभी बस ग्यारह ही हुए हैं… मुझे नहीं पता लोग इसे क्या कहते हैं दिखावा या अन्धविश्वास.. पर ममता कोई तर्क नहीं सुनती..
श्राद्ध, हमारे मृतकों को हममें जिन्दा रखने की एक प्रक्रिया है.. और.. और.. मैं जानती हूँ ..कि.. अब वो कभी भी.. मेरे हाथ का खाना नहीं खा सकेगा… पर… नव.. वो मेरी भावनाएं तो जरूर चख सकता होगा..”पौर्णिका ने उससे गले लगे लगे ही कहा, उसके बाद न जाने कितनी देर तक नवीन का कन्धा भीगता रहा….
-तुषारापात®™