1959 में पुलिस की एक बेहद छोटी टुकड़ी ने लद्दाख में दुश्मन के सामने असाधारण वीरता का परिचय दिया था. मातृभूमि की रक्षा में ये टुकड़ी शहीद हो गई थी.
इस दिन को पुलिस बलिदान दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है लेकिन पुलिस की वीरता और बलिदान से ज्यादा उसकी एक नकारात्मक छवि को फिल्मों और खबरों के जरिए सामने रखा जाता है.
ऐसा नहीं है कि पुलिस व्यवस्था में सबकुछ दुरुस्त है लेकिन पुलिस की खराब हालत के पीछे जिम्मेदार बिंदुओं पर भी गौर करने की जरूरत है.
पुलिस को लेकर आमतौर पर लोगों की मानसिकता ये है कि पुलिस करप्ट है और पुलिस के पास जाने से सुरक्षा कम और भय ज्यादा महसूस होता हैं.
कई ऐसे मामले भी सामने आते हैं जो ऐसे आरोपों को पुष्ट भी करते हैं लेकिन इस सबके बावजूद पुलिसकर्मियों की खस्ता हालत को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.
जरूरत उन कारणों पर गौर करने की भी जिसकी वजह से हमारी पुलिस के ये हालात हुए हैं.
ये तो हम जानते हैं कि पुलिस सिस्टम के साथ बहुत सी परेशानियां हैं लेकिन ये भी सच है कि पुलिस में संस्थागत सुधार ही वह कुंजी है, जिससे राज्यों में कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है.
सवाल यह है कि उस कुंजी को केंद्र और राज्यों की सरकारें क्यों नहीं इस्तेमाल कर रही हैं?
पुलिस रिफॉर्म के लिए आवाज उठायी गई और पुलिस आयोग की रिपोर्ट और उच्चतम न्यायालय के फैसले ने भी एक सकारात्मक प्रयास की ओर इशारा किया लेकिन राजनीतिक नेतृत्व की मन:स्थिति को कैसे बदलें?
पुलिस रिफॉर्म के लिए बहुत काम करने वाले पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह कहते हैं कि ब्रिटिश सरकार के समय सारे भारत में एक पुलिस एक्ट था.
आजादी के बाद भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए था. परंतु हमारे नेतृत्व की उदासीनता के कारण ऐसा नहीं हो सका.
आज राज्यों में अलग-अलग पुलिस एक्ट हैं, जिसने जैसा चाहा वैसा बना लिया. पुलिस को प्रभावी बनाने के लिए उसमें मूलभूत सुधार की आवश्यकता है.
स्वतंत्रता के बाद से ही इस ओर प्रयास किए जाना चाहिए थे, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ.
1975 में इमरजेंसी लगने के बाद लोगों को समझ आया कि हमारा पुलिस सिस्टम कितना कमजोर है और सत्ताधारी पार्टी इसका कितना दुरुपयोग कर सकती है.
आज पुलिस को आप जितना कोसे लेकिन आपको इस पूरी व्यवस्था की कमजोरी को भी समझना होगा.
ऐसा नहीं है कि सारे पुलिस वाले बेईमान है. पुलिस में भी जवान आर्मी की तर्ज पर ही जज्बा लेकर भर्ती होते हैं लेकिन ये भी सच है कि पुलिसिया व्यवस्था में भर्ती की प्रक्रिया ने कई अनियमिताओं को पैदा कर दिया.
जब भर्ती में ही गुणवत्ता और सुरक्षा के जज्बे का अभाव होगा तो इससे हम पुलिस की किस तरह की नस्ल को पैदा करेंगे. राज्य और केंद्र में पुलिस पर काबू करने को लेकर चलने वाली रस्साकशी ने भी पुलिस के हालात को कभी सुधरने नहीं दिया.
ऐसा नहीं कि प्रयास नहीं हुए हो. उत्तर प्रदेश और असम के पूर्व डीजीपी रह चुके प्रकाश सिंह ने इस पर बहुत प्रयास किए. उनसे इस मुद्दे पर बात हुई और उन्होंने राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव को इसका मूल कारण बताया.
1996 में उच्चतम न्यायालय में उन्होंने एक जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर उच्चतम न्यायालय ने 22 सितंबर, 2006 को एक ऐतिहासिक फैसला भी दिया था.
उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों को छह निर्देश दिए और केन्द्र सरकार को एक. राज्य सरकारों को दिए गए निर्देशों में तीन ऐसे थे जो संस्थागत परिवर्तन से संबंधित थे. राज्य स्तर पर एक पुलिस कमीशन के गठन की बात कही गई.
इस कमीशन का मुख्य कार्य पुलिस को हर तरह के बाहरी दबाव से बचाने का था. कोर्ट ने एक पुलिस स्टैबलिस्मेंट बोर्ड बनाने की बात भी कही.
इसके सभी सदस्य पुलिस अधिकारी होंगे और उन्हें कार्मिक विषयों यानी स्थानान्तरण और नियुक्तियों पर पूरा अधिकार होगा.
राज्य स्तर पर और जनपदों में शिकायत प्रकोष्ठ बनाने की बात भी कही गई. यह प्रकोष्ठ पुलिसकर्मियों के विरुद्ध मिली शिकायतों की जांच करेगा.
उच्चतम न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक के चयन, नियुक्ति और कार्यकाल के बारे में भी आदेश दिया.
उद्देश्य यह था कि योग्यतम अधिकारी इस पद के लिए चयनित हों और एक बार नियुक्त हो जाने पर उन्हें दो साल का कार्यकाल मिलें.
जो अधिकारी ऑपरेशनल ड्यूटी पर हैं, जैसे थानाध्यक्ष, पुलिस अधीक्षक, क्षेत्रीय उप महानिरीक्षक और क्षेत्रीय महानिरीक्षक, उनका कार्यकाल भी दो साल निर्धारित किया गया.
पुलिस की जांच शाखा और शांति व्यवस्था शाखा, दोनों के लिए बड़े शहरों में अलग-अलग स्टाफ हों. उद्देश्य यह था कि अभियोगों की विवेचना का स्तर और अच्छा हो.
केन्द्र सरकार को उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसे कमीशन के गठन का आदेश दिया जो केंद्रीय पुलिस बलों में नियुक्तियां और कर्मियों के कल्याणकारी योजनाओं का पर्यवेक्षण करे.
उच्चतम न्यायालय के आदेश राज्य सरकारों को रास नहीं आए. इसका कारण भी नेताओं को लगा कि पुलिस उनके नियंत्रण से बाहर चली गई तो उनका क्या होगा?
नौकरशाही को भी लगा कि पुलिस की नकेल अगर उनके पास नहीं हुई तो उनकी शानो-शौकत में कमी आ जाएगी.
नेता और नौकरशाह अगर किसी बात पर एक राय बना लें, फिर इस देश में उसके विरुद्ध कोई काम होना लगभग असंभव है. यह गठजोड़ सेना को भी नीचा दिखाता रहता है, पुलिस की भला क्या हस्ती है.
परंतु उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन भी करना था. इस स्थिति से निकलने के लिए राज्य सरकारों ने दो हथकंडे अपनाए.
पहला तो यह कि कुछ राज्य सरकारों ने ताबड़-तोड़ अपने-अपने पुलिस अधिनियम बना दिए. जो काम साठ साल से नहीं हुआ था, वह आनन-फानन में हो गया.
अधिनियम बनाने का लाभ यह था कि इनके बन जाने के बाद उच्चतम न्यायालय के आदेशों का पालन आवश्यक नहीं था.
उच्चतम न्यायालय के आदेश में भी यह लिखा था कि उसके द्वारा दिए गए निर्देश तभी तक लागू होंगे, जब तक राज्य सरकारें अपना कानून नहीं बना लेतीं. अब तक 17 राज्य यह रास्ता अपना चुके हैं.
बाकी राज्यों ने उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुपालन में प्रशासकीय आदेश निर्गत किए. यह आदेश दिखाने के लिए तो न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन में थे परंतु वास्तव में यह उनका उल्लंघन नहीं तो अवहेलना करते हैं.
प्रकाश सिंह इस मसले पर कहते हैं कि ये एक अभियान है और इसे पूरा होने में समय लगेगा. ऐसा नहीं है कि कोई फर्क नहीं पड़ा है लेकिन ये भी सच है कि इच्छाशक्ति और मजबूत हो तो ये काम और जल्दी हो सकता है.
वो कहते हैं पुलिस भी दूसरी पैरा मिलिट्री फोर्सेस की तरह हो सकती है. स्मार्ट पुलिस का हमारा सपना भी सच हो सकता है लेकिन उसके लिए पुलिस वालों के जीवन को भी बेहतर करने की जरूरत है.
छोटा घर, कम पैसा, 24 घंटे की नौकरी पुलिस वालों के जीवन के कई ऐसे अमानवीय पहलू हैं जो उन्हें अवसादग्रस्त कर देते हैं.
उनके भी परिवार हैं लेकिन हर त्योहार पर वो अपने घर से बाहर ही रहते हैं. उनके लिए छुट्टी जैसा कोई प्रावधान नहीं है.
ऐसी कई परिस्थितियों से उपजे अवसाद में वो मारपीट तक करते हैं. किसी तरह की मारपीट या भ्रष्टाचार को औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इन हालात को बदलने के लिए पुलिसवालों के जीवन के अमावनमीय माहौल को भी समझना होगा.
प्रकाश सिंह को उम्मीद नहीं कि उनके जीते जी ये हो पाएगा लेकिन वो मानते हैं कि देर से ही सही पुलिस वालों के हालात में भी सुधार आएगा.