ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेज़ : अगर ब्राह्मण न होते तो सब हिन्दू हमारा धर्म स्वीकार कर लेते

इतिहास Francis Xavier के उस वक्तव्य का गवाह है जिसमे उसने लिखा है, ”अगर ब्राह्मण न होते तो सब हिन्दू हमारा धर्म स्वीकार कर लेते.”
“If there were no Brahmins in the area, all Hindus would accept conversion to our faith.”

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और इतिहासकार सुश्री मीनाक्षी जैन जी का ” द इंडियन एक्सप्रेस ” में 18 सितम्बर 1990 को छपा एक लेख पढ़ा. ऐतिहासिक तथ्यों के परिपेक्ष में उन्होंने लिखा है कि क्रिस्चियन मिशनरीज और उनके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा 19वीं सदी के प्रारंभ में अंग्रेजों ने अपने अनुभव और विभिन्न प्रयोगों के आधार पर “सोशल इंजीनियरिंग” शुरू की.

इसका मुख्य उद्देश्य था – ब्राह्मणों के विरुद्ध जहर उगलना, अस्पृश्यों को ब्राह्मणों के विरुद्ध भड़काना. अंग्रेज समझ चुके थे कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षक ब्राह्मण हैं. सब रीति-रिवाज ब्राह्मण ही संचालित करते हैं. ब्राह्मण पढ़े-लिखे हैं और उनको बौद्धिक रूप से गुलाम बनाना दुष्कर कार्य है.

इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि समाज को तीन वर्गों में बाँटने की रणनीति बनाई जाए – मुस्लिम को हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काया जाए, हिन्दुओं को ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण वर्ग में बांटा जाए. इस काम के लिए उन्होंने जिन्ना, नेहरू और अम्बेडकर जैसे महत्वकांक्षी नेताओं को चुना.

सन 1879 में तंजोर के कलक्टर ने फेमिन कमीशन के सदस्य सर जेम्स केयर्ड को अपने संदेश में लिखा “There was no class (except Brahmins) which was so hostile to the English.”

उस समय के सभी राष्ट्रीय आंदोलनों में ब्राह्मणों की भागीदारी से अंग्रेज घबरा गये थे. बहुत से CID सूत्रों की रिपोर्ट्स के आधार पर एक पर्यवेक्षक ने लिखा –

“If any community could claim credit for driving the British out of the country, it was the Brahmin community. Seventy per cent of those who were felled by British bullets were Brahmins”.

ये विश्व इतिहास में अद्भुत सामाजिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मण संचालित करते थे. इसमें सबको अपनी इच्छानुसार विकसित होने की स्वतंत्रता थी. कहीं कोई विरोध या आक्रोश इस व्यवस्था के प्रति नहीं था.

भारत को उत्तरी और दक्षिणी भारत में बांटने के बाद ब्राह्मण विरोधी साहित्य सृजन करने के लिए दक्षिण भारत में प्रयोग शुरू किये गये. अंग्रेजों द्वारा बहुत से विद्वान इस काम में लगाये गये.

लेकिन कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि जिस प्रकार उस समय एक विशेष प्रकार के शुतुरमुर्ग थे जो अपनी गर्दन की लंबाई पर गौरवान्वित थे, आज शेर, चीते, शेरनी, लोमड़ी, लकड़बग्घे हैं जिन्हें लोग अपनी सोशल मीडिया पोस्ट की चाशनी में ही इस कदर लपेट देते हैं कि बेचारे मिठास के चक्कर में साँस लेना भी भूल जाते हैं.

मैं भी पता नही क्यों इतना लिखता हूँ, सब कुछ तो किताबों में और नेट पर लिखा ही है. सबको पता है कि लौट के बुद्धू ही घर आते हैं, सिद्धू नहीं.

पुराने अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक पढ़ाने वाला व्यक्ति अध्यापक, प्रत्येक संस्कृत जानने वाला ब्राह्मण, उच्च पद प्राप्त प्रत्येक व्यक्ति प्रशासक ही है ये जरूरी नहीं होता…. ये लोग सिर्फ पढ़े-लिखे होते हैं. पढ़ा-लिखा होना समझदार होने की गारंटी नही होती.

(क्रमश:)

– प्रकाश वीर शर्मा

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