फिल्मों की तकनीकी भले ही पिछले सौ वर्षो की देन हो पर अभिनय कला बहुत प्राचीन है. इतनी प्राचीन कि जब अरब वाले ऊंट पर चढ़ना भी नहीं सीख पाए थे हमारे भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना कर दी थी.
कोई भी थोड़ा बहुत पढ़ा – लिखा व्यक्ति तमाम प्राचीन योद्धाओं, कवियों, गणितज्ञों, आचार्यों, विज्ञानियों के दो – चार नाम बड़ी आसानी से गिना देगा ..पर किसी प्राचीन अभिनेता का नाम नहीं बता पाएगा.
कारण स्पष्ट है अभिनेता किसी नायक के चरित्र को पटकथा के अनुसार प्रस्तुत करता है ना कि स्वं नायक होता है ..इसलिए हमारे पूर्वजों ने नायक को स्थापित किया …ना कि अभिनेता को.
समाज में नायक स्थापित रहेंगे तो प्रेरणा पाकर नए नायक पैदा होते रहेंगे ..अभिनय तो हो ही जाएगा …नायक को स्थापित करना मुख्य उद्देश्य होता था ..अभिनय गौण होता था.
पिछले कई दशकों में मीडिया ने बड़े चालाकी से बॉलीवुड के नर्तकों को अभिनेता की जगह नायक और महानायक के रूप में स्थापित कर दिया.
जब टीवी और रेडियो बार – बार चिल्ला – चिल्ला कर इनको नायक और महानायक बतायेंगे तो कोई भी सामान्य व्यक्ति इन्हें नायक मान ही लेगा …सब मनोविज्ञान का खेल है…..एफ. एम. चैनल इनके गंदे -भौंडे किस्सों को सामन्य ज्ञान के रूप में दिन – रात प्रस्तुत करते रहते हैं.
चूँकि नायक समाज का आदर्श होता है इसलिए जब नायक बदले तो आदर्श भी बदल गए …लड़के नायक की बजाय अभिनेता जैसा बनने का प्रयास करने लगे और लड़कियां अभिनेत्रियों की तरह …खोखलों का अनुसरण होगा तो समाज खोखला होना ही है …उसी अनुसरण का नतीजा है आज की परिस्थितियां.
चाहे खान बन्धु हों, करण जौहर हो या बॉलीवुड में काम करने वाला कोई और नचनिया/विदूषक/अभिनेता सब लगभग एक जैसे हैं …इन्हें इनकी असली भूमिका माने नचनिया/ विदूषक/अभिनेता के रूप में देखा जाना चाहिए ना कि नायक नायिका के रूप में …हमने दर्शक समूह के रूप में बन्दरों के हाथ में उस्तरा थमा दिया है.
यदि बन्दर के हाथ में उस्तरा पकड़ा देंगे तो आप की दाढ़ी-मूंछ का जो हाल होगा, वही हाल इन बंदरों द्वारा समाज का हो रहा है.
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