एक खिलाड़ी के रूप में महेंद्र सिंह धोनी की सबसे बड़ी मनोगत रूढ़ि बन चुकी है – एक आसन्न भविष्य में संभावनाओं का निवेश करने की बाध्यता और निर्णायक संघर्ष को निरंतर स्थगित करते रहना.
पहले-पहल जब वे खेलने आए थे तो उन्हें लगा था कि एक परिपक्व बल्लेबाज़ के रूप में स्वयं को स्थापित करने के प्रयास इसी रीति से किए जाने चाहिए. जैसे-जैसे वे भारतीय बल्लेबाज़ी का आधार-स्तंभ बनते चले गए, उन्होंने पाया कि भारतीय बल्लेबाज़ी क्रम बहुत गौरवशाली होने के बावजूद बहुधा बहुत क्षणभंगुर सिद्ध होता है और पलभर में रेत के महल की तरह ढह जाता है.
ऐसे में उनके लिए यह लगभग एक नैतिक बाध्यता भी बन गई कि टिककर खेलें और टीम को जीत तक लेकर जाएं. पहले यह उनकी समझ थी, फिर यह प्रतिज्ञा बनी, और अब यह उनकी मनोगत रूढ़ि बन गई है.
इधर के सालों में महेंद्र सिंह धोनी की बल्लेबाज़ी और शायद कप्तानी का भी अब एक ही ध्येय मालूम होता है : खेल को जितना हो सके, उतना डीप ले जाना. आखिरी के क्षणों तक मुक़ाबले को खींचना. संभव हो तो आखिरी ओवर तक. और भी संभव हो तो आखिरी गेंद तक.
स्थगन के इस मोह और रोमांस के लिए अगर अभी का बलिदान दिया जा सकता हो तो वह भी स्वीकार्य होगा. एक फिनिशर होने का मिथक उनके व्यक्तित्व पर जड़ीभूत हो गया है. तीन या चार ओवर शेष रहते भी मैच जीता जा सकता है और बीच के ओवरों में भी बिना जोखिम उठाए उन्मुक्त होकर खेला जा सकता है, यह पूर्वग्रह धोनी के लिए नहीं है.
आसन्न भविष्य में संभावनाओं के निवेश के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि यह रणनीति खेल के सूत्र को प्रतिद्वंद्वी के हाथों में सौंप देने की पूरी गुंजाइश मुहैया कराती है.
यह खेल पर हावी होने की नहीं, बल्कि इस बात की प्रतीक्षा करने की रणनीति है कि पहले कौन अपनी धुरी पर डिगता है. बहुधा धोनी इसमें सफल हुए हैं. बहुधा वे इसमें विफल भी रहे हैं. इधर समय के साथ यह दूसरा वाला बहुधा बदस्तूर बढ़ता जा रहा है.
नीरज पांडे ने महेंद्र सिंह धोनी पर जो बायोपिक बनाई है, उसके बारे में बताया जाता है कि वह धोनी के पूर्ण परामर्श से निर्मित फिल्म है. इन अर्थों में हम उसे धोनी की विचार-प्रक्रिया के भीतर झांकने के एक प्रामाणिक संदर्भ की तरह देख सकते हैं.
मसलन, फिल्म में वे गांगुली, लक्ष्मण और द्रविड़ को बाहर बिठाने का कारण बताते हैं कि ये लोग अच्छी फ़ील्डिंग नहीं कर पाते हैं. जबकि क्रिकेट में एक बल्लेबाज़ को केवल ख़राब बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ को ख़राब गेंदबाज़ी के लिए बाहर किया जा सकता है.
लेकिन चपल फ़ील्डर होना और विकेटों के बीच तेज़ दौड़ लगाना धोनी की चिंतन प्रक्रिया में ज़रूरत से ज़्यादा महत्व रखता है. धोनी को लगता है महज़ अच्छी फ़ील्डिंग करके और विकेटों के बीच तेज़ दौड़ लगाकर मैच जीते जा सकते हैं.
यह अत्यंत भ्रामक अवधारणा है, जिसके चलते पिछले कुछ सालों में भारतीय क्रिकेट टीम ने कई औसत खिलाड़ियों को बर्दाश्त किया है. टी-20 विश्वकप में सेमीफ़ाइनल हार के बाद जब उनसे पूछा गया कि क्या वे संन्यास लेंगे तो उन्होंने जवाब दिया : आपने मुझे विकेटों के बीच दौड़ते देखा? क्या आपको लगता है कि मैं फिट नहीं हूं?
धोनी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि फिटनेस क्रिकेट का एक बुनियादी अनुशासन भर है, विजय तो प्रतिभा, साहस और कौशल से ही मिलती है.
जाने क्यों महेंद्र सिंह धोनी ने ख़ुद पर से भरोसा खो दिया है. जब वे पहले-पहल भारतीय क्रिकेट के पटल पर उभरे थे तो ये तीसरे क्रम पर उनके द्वारा खेली गई दो विस्फोटक पारियों की वजह से था : पाकिस्तान के खिलाफ़ 148 और श्रीलंका के खिलाफ़ 183 नाबाद.
उनके कैरियर का सर्वोच्च शिखर विश्वकप फ़ाइनल में तब आया, जब वे ऊपर बल्लेबाज़ी करने उतरे और खुलकर खेले. लेकिन अब तो वे अंबाती रायडु और मनीष पांडे जैसों के भी नीचे खेलना पसंद करते हैं.
आवश्यकता से अधिक सतर्कता, लगभग एक किस्म की दुश्चिंता, एक नैसर्गिक खिलाड़ी के खेल पर किस तरह से ग्रहण बन जाती है, धोनी इसके उदाहरण हैं.
इसके मनोवैज्ञानिक कारण भी उनके जीवन पर निर्मित फिल्म में आपको मिलेंगे. मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि, लंबे समय तक अवसरों का ना मिलना, तंगहाली के दिन, पराजय का भय और कुंठा.
इस सबके बाद क़ामयाबी पाने वाले व्यक्ति की विचार-प्रक्रिया में जीतने से ज़्यादा हार को टालने को महत्व दिया जाने लगता है. यही मनोगत रूढ़ि इधर धोनी में बहुत विकसित होती नज़र आ रही है.
वे अब जीतने के लिए नहीं, हार को टालने के लिए खेलते नज़र आते हैं. इसकी तुलना में किंचित संपन्न पृष्ठभूमि से आए खिलाड़ियों का आत्मविश्वास और जीत की भूख देखते ही बनती है, जैसे विराट कोहली.
जिस नाव ने किनारे लगाया, उसके प्रति मोह ज़रूर होता है, लेकिन उसको सिर पर ढोकर नहीं घूमा जा सकता. धोनी को यह समझना होगा कि एक “फिनिशर” का जो तमगा पहले उनका मुकुट था, अब वह उनके गले का फंदा बनता जा रहा है.
इस फंदे से मुक्त होना उनके लिए और भारतीय क्रिकेट के लिए बहुत ज़रूरी है. क्योंकि संभावनाएं अब भी उनमें शेष हैं. और हम धोनी को एक चैंपियन की तरह विदाई देना चाहते हैं, पराजित की तरह नहीं.