पुलिस स्मरण दिवस : पुलिस विभाग के सभी वीर अधिकारियों को सैल्यूट

आज पुलिस स्मरण दिवस है. हम चाहे कुछ भी कहें भ्रष्टाचार के कितने भी आरोप लगाएं, मजाक उड़ाएं लेकिन यह सत्य है कि पुलिस की बदौलत ही हमारा समाज सुरक्षित है.

पुलिस विभाग की समस्याओं का कारण समाज नहीं शासन है. राजनैतिक तानाशाही का एक उदाहरण 2013 में सामने आया था जब कांग्रेस के राज में महाराष्ट्र पुलिस के एक दरोगा को 4 विधायकों द्वारा विधान सभा में बुला कर पीटा गया था.

दरोगा जी की गलती यही थी कि उन्होंने पुल पर चालान काट दिया था. हालांकि बाद में विधायकों पर भी क़ानूनी कार्यवाही की गयी. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. ये कैसा समाज है जो इस तरह के कृत्यों पर पुलिस के साथ खड़ा नहीं होता?

क्या हम संवेदना शून्य हो चुके हैं? कभी किसी ट्रैफिक पुलिस वाले को देखिये वह व्यक्ति दिन भर मुँह पर कपड़ा बांधे ड्यूटी करता है और कूल डूड अपनी मोटरसाइकिल तेज़ चलाते सिग्नल तोड़ कर निकल जाते हैं. शर्म नहीं आती!

भारत में पुलिस कर्मचारियों का वेतन और मानदेय कई विकासशील देशों की तुलना में बहुत कम है. उन्हें उनकी सेवाओं के अनुकूल तनख्वाह, सुविधाएं नहीं मिलती यह कड़वा सच है.

सबसे बड़ी बात कि पुलिस विभाग आज भी 1861 के कानून के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया है. भारतीय पुलिस एक्ट बनाने के लिए एक समीति गठित की गयी थी किंतु इस देश में समीतियां तो कसमें वादे की तरह हैं वादों का क्या!

आज से ठीक दस साल एक महीना पहले 22 सितंबर 2006 को प्रकाश सिंह तथा एक अन्य पूर्व डीजी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 7 सूत्रीय सुधार करने के स्पष्ट निर्देश दिए थे.

उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि हर राज्य एक ‘राज्य सुरक्षा आयोग’ बनाये ताकि राज्य पुलिस के कार्यों का समय समय पर मूल्यांकन किया जा सके और राजनैतिक हस्तक्षेप बन्द हो. केंद्र को निर्देश दिए कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग’ बने. इसके अलावा पुलिस अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड, जनता की शिकायत सुनने के लिए पुलिस कम्प्लेंट अथॉरिटी बनाई जाये.

इतना ही नहीं ‘कानून व्यवस्था’ और ‘जाँच/अन्वेषण’ के कार्य पुलिस विभाग में पृथक किये जाएँ. दुःखद है कि इनमें से किसी भी निर्देश का पालन सही ढंग से नहीं किया गया है.

राज्य सरकारें वोट बैंक की राजनीति के चलते NCTC का विरोध करती हैं. लोकल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए करती हैं. कभी कभी तो इंटेलिजेंस ब्यूरो को सही जानकारी नहीं मिलती जिसके कारण अलर्ट ऊपर तक नहीं पहुँच पाता.

हर राज्य में ATS नहीं है. आधुनिक हथियार, तकनीकी उपकरण उपलब्ध नहीं हैं. पुलिसकर्मियों की भी कमी है. ट्रेनिंग तक में मानकों का ख्याल नहीं रखा जाता और न ही नई चुनौतियों का सामना करने के गुर सिखाये जाते हैं.

ऐसे में इस्लामी आतंक से लोहा लेना दूर की कौड़ी है. सीधे तौर पर कहा जाये तो हमारे देश में पुलिस जैसा अहम विभाग नेतागीरी और क्षेत्रीय दलों के तुच्छ स्वार्थ की भेंट चढ़ गया है.

भारतीय पुलिस सेवा का एक बड़ा ही विचित्र रूप देखने को मिलता है जब आई पी एस अधिकारी बी एस एफ और आई बी जैसी गैर पुलिसिया संस्थाओं में बड़ी शिद्दत से काम करते हैं.

प्रकाश सिंह यूपी पुलिस के पूर्व डीजी थे और उन्होंने बी एस एफ को भी कमांड किया. पाँच में से दो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जिनमें श्री अजित डोवाल भी शामिल हैं आई पी एस अधिकारी रह चुके हैं. पुलिस विभाग के ऐसे सभी वीर अधिकारियों को नमन और सैल्यूट.

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