कई लोगों को अक्सर यह शिकायत रहती है कि प्रधानमंत्री मंचों, फोरमों में अपने भाषणों के बीच पाकिस्तान का नाम नहीं लेते, बल्कि आतंकवादी मानसिकता का पड़ोसी, पड़ोसी देश… जैसा कुछ कहते हैं.
ठीक यही शिकायत या कह लें पीड़ा…. प्रधानमंत्री को लेकर…. अरविन्द केजरीवाल की भी है. केजरीवाल का भी मनोरोग, दिनों-दिन इसी वजह से बढ़ता रहा कि विरोध में सही, चार बात सुनाने के लिए ही सही, आठ मजाक उड़ाने के लिए ही सही, प्रधानमंत्री उनका नाम क्यों नहीं लेते!
मुझे लगता है इसी तरह का अवसाद कई औरों के भीतर भी पलता रहा है और आपके प्रधानमंत्री हैं कि बहुतों के नाम का उच्चारण नहीं किया करते अपने बोलने में, जबकि वो बोलते खूब हैं.
समझिए! यह एक बेहद उम्दा और कारगर मानसिक इलाज होता है… संवाद में संबंधित पक्ष का नाम न लेना.
मैंने अपने आभासी (वर्चुअल) जीवन में इस तकनीकी का खुद प्रयोग किया है और लगातार बेहद सफलता के साथ करता रहा हूँ.
जो आपके प्रति अवसाद रखता हो, आप उससे खूब संवाद करिये, बस उसका नाम, उसकी संज्ञा न लिखिए. आप पाएंगे कि उस संबंधित व्यक्ति, पक्ष के मनोरोग का स्तर शानदार और कारगर ढंग से बढ़ता जाएगा.
साथ ही ऐसा करते हुए आप अपनी जुबान, अपने संवाद का स्तर बेहतर बनाये रखने में सफल ही नहीं होंगे बल्कि अगली बार के लिए सामने वाले नकारात्मक, खल चरित्र के चारित्रिक गुणों को बढ़ा रहे होंगे…. जो उसे और दिगंबर करता जाएगा.
दिमागी सन्निपात, पर्सनालिटी कल्ट के शिकार लोग और पक्ष, विरोध के चलते, जाने अनजाने एक समय के बाद खुद का समूचा अस्तित्व किसी एक व्यक्ति अथवा पक्ष से जोड़ लेते हैं.
वह विरोध के मारे किसी एक व्यक्ति के नाम का सिंदूर अपनी मांग में भर के सदा सुहागिन होने के मानसिक अवस्था में जीते रहते हैं.
उदाहरण के लिए देश की राजनीति में केजरीवाल और उनके विरोध का समूचा अस्तित्व मोदी से जुड़ा हुआ दिखता है जिसे केजरीवाल दिखाते भी हैं.
यह दिनों दिन बढ़ता हुआ भी दिखाई देता है क्योकि मोदी ऐसा करके इसे बढ़ाते हैं, नाम या संज्ञा का उच्चारण नहीं करते.
यही हाल शेष विपक्ष की जमात का है जो घर के बल्ब फ्यूज होने, पत्नी के मायके चले जाने के कारण को भी मोदी से जोड़े बैठने की मानसिक अवस्था में जीने को अभिशप्त है.
पाकिस्तान जैसे एक मनोरोगी देश की भी हालत इससे अलग नहीं. उसने भी अपना अस्तित्व भारत विरोध से जोड़ कर बना रखा है.
उसकी भी मांग भारत के ही नाम के सिन्दूर से सजी दिखाई देती है, वक्त-बेवक्त. उसके नेताओं, सेना, मीडिया के लिए भारत एक भरतार के तौर पर है.
मैं प्रधानमंत्री से भूल कर भी अपनी तुलना नहीं कर रहा लेकिन यह सच है कि इस न नामलेवा तकनीकी के सार्थक प्रयोग का मैं साक्षी हूँ और सफल अनुभव भी रखता हूँ.
सार्वजनिक, राजनैतिक, सामाजिक चर्चाओं, संवादों में नकारात्मक, अवसादी व्यक्ति, व्यक्तियों के नाम, जिक्र का तिरस्कार करते हुए चर्चा भी भरपूर जारी रखिये. बदले में आपको अन्य फायदों के साथ दो लाभ सीधे-सीधे दिखेंगे-
1. बीमार व्यक्ति अथवा पक्ष का अवसाद और बढ़ता जाएगा जिसके चलते वह खुद को निरंतर दिगंबर करता जाएगा. मतलब आप उसे खुद अपने कपड़े फाड़ने की स्थिति में ले आएंगे.
2. खुद का समूचा अस्तित्व, आपसे और आपके विरोध से जोड़ बैठे व्यक्ति अथवा पक्ष के सामने आप अस्तित्व का संकट खड़ा कर रहे होंगे. ऐसा इसलिए होगा क्योकि उसके लिए, उसके खुद का होना, न होना आपकी वजह से होगा और आप होंगे कि उससे पूछते नजर आएंगे : बेss… तू कौन ?
इस लिखी बात को सीमित दायरे में ही सही… अपने-अपने स्तर पर आजमा कर देखें. आप पाएंगे कि एक स्तर के बाद आपका वह अवसादी प्रेमी जीव, जंतु, आत्मा या पक्ष, आपके सामने मुंह से झाग और खून फेंकने, सर पटक के जान दे देने की ऊंचाई तक अपना मनोरोग ले जाता हुआ मिलेगा.
और आप मुस्कुराते हुए कहते मिलेंगे : अरे रे रे रे….. अपनी जान बचाओ भाई, तुम्हारी हालत तो ठीक नहीं दिखती.
न नामलेवा तकनीकी का इस्तेमाल करिये, आपको पीएम टाइप फील आएगी.