याज्ञसेनी – 1 : हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!

द्रौपदी का जन्म एक अवांछित घटना थी. राजा द्रुपद की ग्यारह संतानें थी लेकिन फिर भी उन्हें एक ऐसे पुत्र की आवश्यकता थी जो उसके शत्रु आचार्य द्रोण से उस अपमान का बदला ले, जो आचार्य ने अपने शिष्यों के माध्यम से उन्हें परास्त कर और बंदी बना कर किया था. वृद्धावस्था के कारण अब राजा द्रुपद जैविक संतान उत्पन्न करने में सक्षम नहीं थे अत: उन्होंने यज और उपयज नामक पुरोहितों को उनके सौ शिष्यों के साथ काम्पिल्य से आमंत्रित किया था ताकि वे यज्ञ के माध्यम से, अग्नि के माध्यम से एक अति वीर अयोनिज पुत्र प्राप्त कर सकें.

राजा द्वारा किए गए तीस दिनों के जलाहारी अनुष्ठान और यज्ञ के बाद, आकाशवाणी होती है कि — हे द्रुपद अब तेरे कुलदेवता प्रसन्न हुए हैं और तुम्हें एक ऐसा बलिष्ठ पुत्र देंगे जो तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध लेगा. कुछ क्षणों बाद, अग्नि में से लगभग पाँच वर्ष की वय वाले सुंदर पुत्र की छवि दिखाई देती है जिसने अग्नि के समान ही चमकदार वस्त्र धारण किए हुए हैं. राजा तुरंत उस बालक को ग्रहण करने के लिए – धृष्टद्युम्न की ओर बढ़ते हैं.

उसी समय दूसरी आकाशवाणी होती है – राजन, पुत्र के साथ हम तुम्हें एक विलक्षण पुत्री भी उपहार स्वरूप दे रहे हैं जो इस जम्बू-द्वीप के इतिहास को बदल देगी और लोक में धर्म की स्थापना के लिए व्यापक संघर्ष करेगी. और तत्काल, अग्नि में धृष्टद्युम्न के पीछे एक साँवली-सी समवय की बालिका भी दिखाई देने लगती है.

राजा, पुत्र धृष्टद्युम्न को गोद में उठा लेते हैं पर पुत्री याज्ञसेनी पर ध्यान नहीं देते. वह भयाकुल, दृढ़ता से अपने भाई का हाथ थामें रहती है. याज्ञसेनी द्रुपद के इस व्यवहार को देख कर, स्वयं को उसी क्षण से ही अवांछित समझने लगती है. पर क्या करे, वह पृथ्वी पर, राजा द्रुपद की पुत्री के रूप में आ तो गई है.

पिता के साथ याज्ञसेनी के सम्बंध कभी भी सामान्य नहीं हो पाए. इसके अतिरिक्त उसे सदा यह भी लगता रहा कि वह सुन्दर होते हुए भी, भाई की तरह गौर वर्ण नहीं है, कृष्णा है.

याज्ञसेनी अब अपनी कहानी स्वयं कहेगी.
वह पंचकन्याओं में से एक है और उसे अपने अतीत का भी थोड़ा-सा स्मरण है.

॥ याज्ञसेनी ॥

याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
स्त्रियों के जन्म कब चाहे समय ने,
सभ्यता ने और पुरुषों ने
बस देह ही चाही!

पुत्र की ही चाह तब से आज तक है
युद्ध का नायक बनेगा वह!
मृत्यु पर देगा वही
अग्नि, तर्पण, दान, सज्जा भी
श्राद्ध होंगे पूर्वजों के संकल्प से उसके
राज्य का स्वामी बनेगा वह
कुछ नहीं बदला!

उनको स्मरण था वह कथाक्रम —
जब राज्य प्रश्रय के लिए द्रोण आया था
स्वयं चल कर!
गुरु पुत्र था वह, मित्र भी था
बालपन में साथ थे वे,
दीक्षित हुए थे एक ही दिन!

और उसको कह दिया उत्तेजना में —
एक राजा निर्धनों को
क्यों करे स्वीकार,
यदि उनका उपयोग ही न हो!
जनहित का दिखावा
घोषणा भर ही तो रहा है
हर समय में
पर द्रोण भूला ही नहीं उस वेदना को!

उद्विग्न थे राजा द्रुपद सम्मान खो कर
वह संग्राम में हारे हुए थे!
आचार्य शिष्यों ने उन्हें बंदी बना कर
राज्य आधा ले लिया था!

पुत्र की इच्छा प्रबल थी
यज्ञ में बैठे हुए थे द्रुपद
स्वस्ति वंदन हो रहा था देवताओं का
आचार्य थे यज और उपयज
धूम्र से महका हुआ था यज्ञ परिसर
मानो नृत्य अग्नि कर रहा था!

कुल देवता अब तृप्त थे हवि से
द्रुपद की याचना से
यह हुई आकाशवाणी – राजन, तुमको मिलेगा
पुत्र ऐसा जो वध करेगा द्रोण का
वीर, कर्मठ, धीर और गम्भीर भी होगा
धृष्टद्युम्न उसका नाम होगा
वही, पाँचाल का राजा बनेगा!

अग्नि में जब स्वर्ण-सी आभा लिए
बालक दिखाई दे गया
दुंदुभि बजने लगी थी
जय घोष से, चारों दिशाएं भर उठी थीं
यज्ञ लेकिन चल रहा था
काम्पिल्य से आए बटुक,
समवेत स्वर में मंत्र वाचन कर रहे थे!

याद है, राजा द्रुपद आगे बढ़े थे
गोद में धृ को उठाने
और मैं भी अयाचित सामने थी,
जन्म था यह द्रौपदी का!

अग्नि से मेरे उदय पर
हैरान थे राजा द्रुपद,
यज और उपयज!
आगमन मेरा रहा इक यक्षिणी-सा
धूम्र में नीला कमल ज्यों खिल रहा था
मैं अयाचित श्याम वर्णा
अब धरा पर आ गई थी!

यह समय का चक्र था
जो घूमता ही जा रहा था
पाँचाल-पुत्री, द्रौपदी, कृष्णा
फिर नए इस जन्म में अभिशप्त थी
भोगने को यंत्रणाएं
स्त्री बन कर!

याज्ञसेनी नाम है मेरा
अयोनिज जन्मना हूं!
कौरवों का नाश हूँ मैं!
यह आकाशवाणी जन्म पर मेरे हुई थी!

यज्ञ तो पूरा हुआ आहूति देकर!
पुत्र राजा को मिला
जो शौर्य में पुरुषार्थ में उत्कृष्ट ही था
पर इस खेल से मुझ को मिला क्या?
क्या कामना की थी
किसी ने श्यामवर्णी एक पुत्री की?

स्त्रियाँ क्या मात्र हवि हैं
जो किसी भी यज्ञ में,
अग्नि में डालो, मसल दो
लालसाएं पूर्ण कर लो?

जन्म से ही उपेक्षा का
इतिहास है इस याज्ञसेनी का!
मुझे सदा संघर्ष ही करना पड़ा है!
मेरी कहानी है दुखों की, यातनाओं की
पुरुष के वर्चस्व की भी
आओ सुनाती हूँ……..
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!

स्त्रियों के जन्म तो होते रहे हैं
स्त्रियाँ ही जन्म देती हैं उन्हें भी
सृष्टि ऐसे ही चली है युग युगों से!

स्त्रियाँ ही राजमाताएँ,
रानियाँ पट-रानिया भी
और वे ही नगर-वधुएँ
इक असंगति सी झलकती है
हमारे धर्म में,
चिंतन व्यवस्था में,
न्याय क्यों
नारी विमुख सा ही रहा है?

धाय के सानिध्य में
अपने भवन में
शांत बैठी हूँ!

याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!

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