महिला, युवा और बेरोजगार असामाजिक तत्वों और विघटनकारी शक्तियों के निशाने पर हमेशा रहते हैं. एक तो इन्हें जल्दी बरगलाया जा सकता है और दूसरा इनके शोषण के नाम पर या इनके अधिकारों के नाम पर संवैधानिक रूप से सरकार विरोधी आंदोलन चलाये जा सकते हैं.
परिवार है तो छोटे मोटे मनमुटाव भी चलते ही हैं, बर्तन एक साथ रखोगे तो टकराएंगे भी और आवाज भी होगी. ऐसा ही पति-पत्नी में भी चलता है, कभी पति झुककर परिस्थिति संभालता है तो कभी पत्नी.
ये भी है कि स्त्री स्वभाव से ही मृदुल होती है, इसलिए परिवार को बचाये रखने में उसकी बहुत बड़ी भूमिका होती है. लेकिन ये इतने बड़े मुद्दे नहीं होते कि सोशल मीडिया पर आएं. ये पति-पत्नी खुद सुलझा लेते हैं. गम्भीर मुद्दे परिवार की मदद से भी सुलझाए जाते हैं.
लेकिन आधुनिकता, शिक्षा और सशक्तिकरण के साथ साथ ये मुद्दे कोर्ट कचहरी तक जाने लगे और खूब जाने लगे. पता नहीं कि हम इन शब्दों को सही से समझ नहीं पा रहे हैं या समझने नहीं दिया जा रहा है.
महिला मित्रों की वाल पर पुरुषों की मानसिकता, मानसिक प्रताड़ना, पारिवारिक हिंसा, पितृसत्तात्मक व्यवस्था विरोधी, करवा चौथ, बिंदी, चूड़ी, बिछुए से आजादी वाली पोस्ट पर कमेंट्स बड़े क्रन्तिकारी होते हैं.
मैं अक्सर ऐसे पोस्ट पर असहमत होता हूँ. अधिकांश महिलाओं के कमेंट्स से पुरुष मित्र असहमत होते हैं (लार टपकाने वाले मजनुओं और चाटुकारों को अपवाद माना जा सकता है) …. नहीं नहीं बात असहमति की नहीं होती.
बात “अति” की होती है. पोस्ट देखी नहीं कि सब मनोवैज्ञानिक बन जाते हैं, अपने ही अनुभव को अंतिम सत्य मानकर दूसरों पर थोपने लगते हैं … लगता है सबकी लेखनी में चुड़ैल एक साथ निवास कर जाती हैं.
सारे कमेन्ट एक ही दिशा में, बिलकुल भेड़चाल … बिल्कुल बहती गंगा में हाथ धोने जैसा कि कहीं हम छूट न जाएँ या पीछे न रह जाएं, ‘किरांती’ तो तब आती है जब अपने घर परिवार में सब सुख से जीने वाली महिलाएं भी गोता लगाने पहुंच जाती हैं.
अपने आपको हाई फाई साबित करने की घुड़दौड़ मची है. किटी पार्टियों के नाम पर क्या क्या होता है, सोचकर आपकी रूह कांप जायेगी.
कृपया अन्यथा न लें. वास्तविक समाज इस फेसबुकी दुनिया से बहुत मामलों में बेहतर है. वहां बुद्धिजीवी हैं और यहां क्रान्तिकारी…… फ़ेसबुक से बस यही क्रांति होती है कि चिंगारी बचे खुचे छप्पर भी फूंक दे. मने हमारा घर जल गया तो आपका क्यों न जले!
माँ की जिम्मेदारी भी महिला ही निभाती है. लेकिन मैंने आज तक किसी महिला का भी कोई पोस्ट नहीं पढ़ी कि उनके बच्चों को वो क्या पढ़ा रही हैं, क्या संस्कार दे रही हैं, उसको कितना समय दे रही हैं या उसके साथ कैसा व्यवहार करती हैं. बस मुझे इतना ही कहना है कि आपके बेटे ही किसी के पति बनते हैं. सीरियसली सोचिये !
खोजी कुत्तों की तरह ही षड्यंत्रकारी अपने टारगेट ग्रुप को ब्रेनवाश की बहुत बढ़िया तरीके से ट्रेनिंग देते हैं. एजेंडा स्पष्ट नहीं किया जाता बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से उनको कमजोर किया जाता है.
ट्रेनिंग पूरी होने पर उनका उद्घोष होता है कि महिलाओं को स्वतंत्र कीजिये, उन पर पुरुषवादी सोच मत लादिये, उनके अस्तित्व पर हमला मत कीजिये, वो अपना अच्छा बुरा समझती है, आदि आदि ….
उनको यह नहीं समझने दिया जाता कि दलित चिंतकों और कश्मीरी अलगाववादियों की तऱह ही सैकड़ों प्रगतिशील नेतानियां (??) अपने हजारों समर्थकों के साथ इनके सहारे ही पल रही हैं. विदेशी सिगरेट, शराब और अय्याशी चालू है. फंडिंग जारी है.
कितना गज़ब है! महिलाओं के बारे में भी महिला खुद सोचें और पुरुषों के बारे में भी. तो फिर परिवार चलाना और सुरक्षा, पुरुष की जिम्मेदारी क्यों?
न विवाह होगा न बन्धन !
अगर पूरक बनकर, सामंजस्य बनाकर स्त्री-पुरुष परिवार नाम की संस्था को नहीं चला सकते तो क्यों न इसी का बहिष्कार किया जाए!
वैसे, किसी से पूछिए कि क्या पौराणिक काल से महिला शोषित थी? या एकता कपूर ने महिलाओं को खलनायिका बनाकर पेश करना शुरू किया? इन महिलाओं का एजेंडा तो इनकी क्रान्तिकारी वाल से पता लगता हैं. लेकिन इस स्वतंत्रता, नँगेपन और आधुनिकता के दुष्परिणाम प्रतिदिन अख़बारों में छपते हैं.
शिकार हुई महिलाओं, बच्चियों और उनके माँ-बाप से बात करके देखिये, आपकी आंखें अगर भर न आएं तो कहना. जिनका दिल और बेटी नहीं है, वो अपवाद हो सकते हैं.
क्रन्तिकारी महिलाओं की हर पोस्ट में सिर्फ यही एजेंडा होता है, आखिर क्यों? ये गिरोहबंदी किसलिए? सबको अपने हिसाब से चलने दिया जाने के बजाय दिग्भ्रमित किसके इशारों पर किया जा रहा है?
क्या परिवार में स्त्री-पुरुष के टकराव के अलावा अच्छा कुछ भी नही होता, और अगर होता है तो वो क्यों नही लिखा जाता? ये नकारात्मकता महिलाओं के दिमाग में कौन भरता है? मेरी शोध के अनुसार ये फुल फ्लेज्ड नेटवर्क है जिसे “हलाला” में बुराई नहीं दिखती लेकिन मलाला में सिर्फ बुराई ही दीखती हैं.
महिलाएं इस ब्रेनवाश का सॉफ्ट टारगेट होती हैं. जिन्हें विश्वास न हो वो इन क्रांतिकारियों की मित्रसूची और उन मित्रों के पोस्ट खंगाल लें. अधिकांश के कमेन्ट बॉक्स प्रतिबंधित मिलेंगे.
मेरा मानना है कि अगर परिवार रूपी संस्था को मजबूत करना है और समाज को शुद्ध रखना है तो संस्कार महिला की और संसाधन पुरुष की जिम्मेदारी हो, अध्यापन महिला की और अर्जन पुरुष की जिम्मेदारी हो, दोनों सिक्के की तरह रहें जिसमे हेड के बिना टेल और टेल के बिना हेड मूल्यविहीन होता है, पूरक बनें, सकारात्मक पढ़ें, सोचें और बच्चों को जीवन मूल्यों की शिक्षा दें.
आप घर में रहें , नौकरी करें या व्यवसाय करें लेकिन अपने बच्चों को आया या नौकरों के भरोसे छोड़कर पुरुष मानसिकता को न कोसें.
जिम्मेदार माँ-बाप, सशक्त समाज!
– प्रकाश वीर शर्मा
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