एक नौजवान की हड्डियों में
एक केंकड़ा^ पैदा हुआ
और ऐसे बड़ा हुआ
जैसे फ़िल्मों में एक बच्चा
कुछ ही मिनटों की दौड़ में जवान हो जाता है
और फिर कटर कटर कटर
हड्डियों के कुतरे जाने की आवाज़
और तकलीफ़ उसके भीतर गूँजने लगी
जिसे उसके माँ-बाप ने भी सुना
कि माँ-बाप लाख बूढ़े और बीमार हों
अंधे-बहरे-लाचार हों
सुन ही लेते हैं बच्चों के भीतर
सुख के तिनकों के टूटने की आवाज़
ख़ामोश चीख़ें रुलाइयां
उस घर में तीन देहें एक साथ
रोने और सोने लगीं
आहिस्ता-आहिस्ता
मौत के साये की परछाइयाँ
लम्बी होने लगीं
तीन अधमरे लोगों ने
जीने की पूरी कोशिश की
जितनी दौड़ लगा सकते थे लगाई
जिसे पुकार सकते थे पुकारा
जिसे जो दे सकते थे दिया
जहाँ दस्त ओ दामन पसार सकते थे पसारा
मगर हदें ही तो हैं
जो आदमी को जीने और मरने के लायक बनाती हैं
दुख के आँगन में डोलतीं तीन देहें और एक जान
सिर्फ़ लैला-मजनूँ के मुहावरे से वाक़िफ़ लोगो
सिर्फ़ इश्क़ में ऐसा नहीं होता
हाँ कह सकते हो
कि इश्क़ में भी यह होता है
दुख के आँगन में डोलतीं तीन देहें और एक जान
हवा कम पड़ने लगी
और दिन तो दिन
रातें तो रातें
पल और छिन भी बहोऽऽऽत लम्बे होने लगे
तब उन्होंने लिखना शुरू किया
ज़िंदगी और घर का कोमल हिसाब
पूरी कठोरता और न्याय के साथ
कि किसे क्या मिले
मकान का क्या हो
क्या हो बिस्तरों का
बर्तनों में कौन खाए
महीनों से खूँटी पर टँगा गिटार कौन बजाए
किसे मिले वृद्धा के गले में लटका मंगलसूत्र
और किसे वह काँपती-कराहती
लगातार कमज़ोर होती जान
जो तीन देहों को
वक़्त के दौड़ते घोड़ों के टापों के नीचे
रख रही थी लिटाए बेहद सख़्ती से
और एक दिन
जीवन का आख़िरी दस्तावेज़ तैयार हो गया
और सबने अपने-अपने दस्तखत कर दिए
उस वक़्त वहाँ कोई नहीं था
न मनगुनिया* न सरकार और न ही ईश्वर !
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^ केकड़ा: Cancer
* मन को जाननेवाला, यहाँ मनोचिकित्सक के अर्थ में प्रयुक्त. वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति मुझे मनगुनिया कहते हैं.
(इस कविता के आरम्भिक अंश की पीड़ा कवि ‘कुमार मुकुल’ ने झेली है. उनके और परिवार के संघर्ष और सौभाग्य से उनका पुत्र सोनू अब रोगमुक्त है. इसकी दास्तान उनकी किताब सोनू-बीती में दर्ज है. )
– ख्यात कवि और मनोचिकित्सक विनय कुमार की उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति