कहा जाता है कि गुजरात, हिन्दू ताकतों के लिए एक प्रयोगशाला था. लैब एक्सपेरिमेंट था. आज एक नयी कहानी लिखता हूँ एक और लैब की, जहां कम्युनिस्टो ने भी एक एक्सपेरिमेंट किया था.
दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति ने अपना नया प्रोडक्शन यूनिट शुरू किया था जहां मुख्यतः स्विफ्ट कार का उत्पादन होना था. गुड़गाँव में मारुति का विशाल कारख़ाना था ही.
मारुति उस समय कट थ्रोट कंपीटीशन से जूझ रही थी. तमाम कंपनियां उसके मार्केट पर चढ़ी बैठी थीं. और स्विफ्ट, मारुति का हॉट सेलिंग केक थी. मारुति की जान थी. ये हालात थे कि जितना बनाओ उससे ज्यादा डिमांड थी.
मारुति ने अपने प्लांट में स्विफ्ट की प्रोडक्शन अधिकतम रखने के लिए कुछ नए रूल बनाए. मजदूरो को 8 घंटे की शिफ्ट में सिर्फ 20 मिनट लंच, 7 मिनट चाय के और डेढ़ मिनट बाकी किसी और काम के लिए मिले.
यहाँ तक कि मजदूरों के लिए बाथरूम भी जाना मुश्किल था. एक सेकंड फालतू, आधे दिन की सैलरी कट जाती थी. अगर किसी ने किसी दिन की छुट्टी ले ली तो उसकी तनख्वाह से डेढ़ हजार रुपए काट लिए जाते थे.
मजदूर, मजदूर न होकर काम करने वाले रोबोट हो गए थे. और इन सबके बाद मजदूरो की मानेसर प्लांट में कोई यूनियन नहीं थी जो आवाज उठा पाती.
स्टेज सेट थी. कुछ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनो ने मौके को पहचाना और मजदूरों को जागृत करना शुरू किया. अंत में 2011 जून में मजदूरों ने चंडीगढ़ जाकर हरियाणा सरकार के लेबर ऑफिस में यूनियन बनाने के लिए अर्जी डाल दी.
अगले दिन 4 जून को मारुति ने उन वर्करो को कंपनी से निकाल दिया जो यूनियन की मांग को लेकर चंडीगढ़ गए थे. और नतीजा खतरनाक निकला. मजदूरों ने फैक्ट्री को आक्युपाई कर लिया, पहली स्ट्राइक शुरू हो गयी.
तेरह दिन तक ये स्ट्राइक चली. समझौता हुआ. इस समझौते में 11 वर्कर, जो निकाले गए थे, मारुति ने उन पर एंक्वायरी करके वापस ले लेने का ऐलान किया. मजदूरों ने काम करने की स्थिति को सुधारने के लिए कोई डिमांड नहीं रखी.
इस स्ट्राइक को नेतृत्व देने के लिए भारत भर के वामपंथी आगे आए. जेएनयू से छात्र, प्रोफेसर बसों में भर-भर के मारुति जाते थे, उनके साथ प्रोटेस्ट करते थे. मारुति के बाहर मजदूरों को संबोधित करते थे. अखबारों में वाम नेताओं के बयान आते थे.
एक महीने के अंदर इस समझौते की भी पोल खुली. हरियाणा सरकार ने नयी यूनियन बनाने की मांग में कई टेक्निकल खामियाँ निकाल दी. जैसे सिग्नेचर मैच नहीं हो रहे थे.
मारुति मैनेजमेंट ने भी आरोप लगाया की मजदूर जानबूझ कर उत्पादन स्लो कर रहे हैं. प्लांट में अशांति की छोटी मोटी घटनाए होने लगी.
27 जुलाई 2011 को 4 कांट्रैक्ट मजदूर अशांति फैलाने में गिरफ्तार कर लिए गए. जहां 900 परमानेंट मजदूर थे, वहीं 2000 से ऊपर कांट्रैक्ट मजदूर और अस्थायी मजदूर थे.
कांट्रैक्ट मजदूरों को, परमानेंट मजदूरों की आधी सैलरी और अस्थायी मजदूरो को एक तिहाई सैलरी मिलती थी. लेकिन काम सभी को बराबर करना पड़ता था. इस इंतजाम से कंपनी को प्रॉफ़िट मैक्सिमम रखने में मदद मिलती थी.
28 अगस्त को मारुति ने मजदूरों के काम करने की एक नयी शर्त रख दी. बिना गुड कंडक्ट बॉन्ड पर साइन किए मजदूरों को फैक्ट्री में घुसने देने से इंकार कर दिया गया.
करीब 400 पुलिस वालों ने फैक्ट्री में घेरा डाल दिया. और अगली स्ट्राइक के लिए स्टेज सेट हो गयी. इस स्ट्राइक में मारुति का साथ आसपास की कंपनियों के मजदूर साथियों ने भी दिया.
जहां मारुति के पक्ष में खुद पीएम मनमोहन सिंह ने बयान जारी किया, हरियाणा सरकार ने पुलिस देकर पूरा सपोर्ट किया, वहीं मजदूरों के साथ कम्युनिस्ट छात्र संगठन थे, जेएनयू था. दिल्ली, कलकत्ता यहाँ तक कि जापान तक में प्रदर्शन आयोजित किए गए.
मारुति ने 62 और मजदूरों को कंपनी से निकाल दिया. 7 अक्तूबर को कंपनी ने आरोप लगाया कि वर्कर्स ने अन्य मजदूर, जो बॉन्ड पर साइन कर चुके हैं, सुपरवाइज़र, इंजीनियरों के साथ मारपीट की है, तोड़फोड़ की है, आगजनी की है.
मारुति ने परमानेंट मजदूरों के परिवार वालों तक को उनके मोबाइल पर मेसेज भेज कर उनसे हड़ताल को वापस लेने की अपील की.
अंत में 55 दिनों के बाद समझौता हुआ. नयी यूनियन की मांग मान ली गयी. मारुति ने निकाले गए मजदूरों को वापस लेना स्वीकार कर लिया. लेकिन मैनेजमेंट ने एक और षड्यंत्र किया. उन्होंने मजदूर नेताओं को विवश कर दिया फैक्ट्री छोड़ने के लिए.
ऐसा कहा जाता है कि जो मजदूर नेता थे, उन्हें एक-एक करोड़ रुपए देकर इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया. मजदूरों की यूनियन को कमजोर रखने के हर संभव प्रयास हुए.
और सबसे बड़ी बात इस हड़ताल के बाद भी वर्किंग कंडीशन में कोई सुधार नहीं हुआ.
और अंत में 2013 जुलाई में मजदूरों का गुस्सा फिर से फूटा, जिसमें आगजनी की एक बड़ी घटना में मैनेजमेंट के एक अधिकारी सीनियर एचआर अविनाश को जान से हाथ धोना पड़ा. बहुत से घायल हुए. पुलिस ने करीब डेढ़ सौ मजदूरो को गिरफ्तार किया.
हरियाणा सरकार ने पूरा इंतजाम किया कि इन मजदूरों को जेल में सड़ा दिया जाये. जहां एक से एक खतरनाक केसों में बेल मिल जाती है, वहीं इन मजदूरों को कोर्ट ने जमानत देने से मना कर दिया.
सरकार करोड़ो रुपए प्रतिदिन देकर बड़े वकील तुलसी साहब को इन मजदूरों के खिलाफ कोर्ट में भेजती थी. कोर्ट इस आधार पर जमानत नहीं देता था कि इन्टरनेशनल लेवल पर देश की बदनामी हुई है.
इन मजदूरों के घर बर्बाद हो गए. कोर्ट केसेस में घर बिकने लगे. परिवार तबाह होने लगे. अंत में 31 महीने जेल में रहने के बाद इन मजदूरों को जमानत मिलनी शुरू हुई. वो रिहा होने लगे, लेकिन एक बड़ी कीमत चुकाने के बाद.
ये आगजनी क्यों हुई? इतनी नफरत क्यों भड़क गयी. तमाम विरोध, गलत व्यवहार के बावजूद भी क्या ये हत्या जायज थी?
आखिर कम्युनिस्ट नेता जेएनयू के बड़े नाम वाले वामपंथी इन मजदूरों के दिमाग में क्या भर रहे थे?
आज भी आप वामपंथियों के स्टेटस देखिये. वो आपको जन समस्या बताते मिलेंगे, सरकार की आलोचना करते मिलेंगे. लेकिन बहुत ध्यान से इन स्टेटस को पढ़िये, लगातार पढ़िये, ये धीरे-धीरे आप में सरकार के प्रति नफरत, गुस्सा भरते मिलेंगे.
जैसे मारुति में समस्या थी, आज देश में भी है. मारुति आज चल रही है, टॉप की कंपनी बनी हुई है, वही मजदूर वहाँ काम कर रहे हैं. हालात पहले से बेहतर हैं. समय लगता ही है. आवाज उठाना जायज है. लेकिन नफरत में अंधे हो जाना समस्या का हल नहीं.
जिन मजदूरों ने ये आगजनी की, जब उनके ऊपर कोर्ट केस चला, वो जेल में थे, उनके परिवार तबाह हो रहे थे. कोई कम्युनिस्ट उनकी मदद को आगे आया? ऐसी मुझे जानकारी नहीं. कतई नहीं. वो अपने हाल पर छोड़ दिये गए. आज कोई गाँव वापस जा रहा है, कोई खेती में, कोई कहीं.
आज भारत की भी वही हालत है. कम्युनिस्ट वैसे ही आपको समस्याओं के बारे में शिक्षित कर रहे हैं. अच्छा कर रहे हैं. लेकिन सिर्फ सुनिए, कहे में आकर कुछ कर बैठेंगे तो हालात बहुत बुरे होंगे. भारत एक बड़े मोड़ पर है, जहां एक छलांग उसे विश्व में ऊपर ले जाएगी, विकास के पथ पर ले जाएगी. फैसला आपके हाथ.