हम अपनी सामान्य स्वार्थ और शरीरी भूख में उलझी बुद्धि से कभी भी प्रकृति और पुरुष के मध्य चलने वाले अनन्त अनवरत संवाद को तब तक नहीं समझ सकते. जब तक कोई पुरुष सतत प्रकृति से सम्वाद करता हुआ, हम सब प्राकृतिक भूख की आग में झुलस रहे हाड़ मांस के पुतलों के मानसिक स्तर पर आकर उस रहस्य को सामने लाने की कोशिश नहीं करता.
जिस रहस्य को समझने के लिए हमारी चेतना हर पल लालायित है, और अनन्त काल से सिर्फ एक इसी रहस्य की गुत्थी को सुलझाने के लिए बार बार शरीर के साथ अवतरित होने को विवश है.
“यह तुम्हारी इच्छाएँ ही, तुम्हारे जन्म का वास्तविक हेतु या कारण हैं, जब तक तुम्हारी यह इच्छाएँ शांत नहीं होती, तब तक तुम अपनी चेतना के साथ सदैव मौजूद गुरु तत्व को अनुभव ही नहीं कर पाओगे”
सिर्फ इतने से सीधे सत्य के ऊपर टिकी ओशो रजनीश की देशना को यदि तुम अभी तक नहीं समझ पाये, तो यह तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं का कहीं न कहीं दबा कुचला भण्डार ही है, जो तुम्हें बार बार तुम्हारे उन्हीं अनसुलझे रहस्यों में उलझा रहा है.
याद रखना संन्यास कोई शब्द नहीं, कोई वस्त्र नहीं जिसे बोलकर या ओढ़कर तुम समाज को धोखे में रख पाओगे, संन्यास वह आत्मविकसित मर्यादा है, जो तुम्हें कोई चाहकर भी नहीं थोप सकता, जब तक तुम स्वयं से उस अवस्था के लिए तैयार नहीं हो.
“मैं ओशो सन्यासी हूँ,” आये दिन जब मेहरून रंग का झामा पहने, रजनीश के चेहरे की माला गले में डाले, लोगों के मुँह से जब यह शब्द सुनता हूँ, तो रूह काँप जाती है, आखिर कोई कैसे इतनी सहजता से, इतने गूढ़ शब्द को इतने हल्के स्वरुप में बोल जाता है.
बात वहां जाकर पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है, जब ओशो के नाम पर आयोजित ध्यान शिविरों में इन्हीं स्वघोषित संन्यासियों की आँखों में वासनाओं का उमड़ता ज्वार देखने लगता हूँ.
यह तमाम तथाकथित स्वघोषित सन्यासी खुद भूख की आग में झुलसते हुए, नये नये आगन्तुकों को रजनीश रुपी जामा और माला पहनाते हुए उनके भी संन्यासी हो जाने की घोषणा करने लगते हैं.
एकांत में दबे कुचले इन्हीं संन्यासियों के मुंह से जब शब्द सुनता हूँ, क्यों कितनी माँए आई हैं? तब सन्यास शब्द के साथ साथ उस “माँ” शब्द से भी ग्लानि होना शुरू हो जाती है, जिसका चोला ओढ़कर काम की प्यास में झुलसती औरतें नए नए संन्यास का जामा पहने स्वामियों को खोजती नजर आती हैं.
शर्म करो, गुरु के नाम पर अपनी अतृप्त इच्छाओं का नंगा खेल खेलने वालों, तुम्हें तो डूब मरने के लिए तुम पर दयावश यदि कोई चुल्लू भर पानी भी दे रहा होगा, तो वह भी अपराधी ही होगा और उस पाप का भागीदार जिस पाप रुपी ग्लानि में तुम स्वयं आये दिन खुद को डुबो रहे हो.
क्षमा करना, किन्तु अहंकार मुझे भी है, क्योंकि एक संन्यासी की देशना मैं भी धारण करके चल रहा हूँ, तुम्हारी नीयत और तुम्हारे गुरु के नाम पर चलने वाले तुम्हारे इन असामाजिक धन्धों से तुम्हारे गुरु की नीयत पर शक होना लाजमी हो जाता है.
फिर भी जहां तक मुझे जो अनुभव है और विश्वास है, रजनीश की देशना कहीं भी किसी भी प्रकार की पूर्व प्रायोजित स्वार्थी मानसिकता से ग्रसित नहीं थी, जिस तरह उनके तथाकथित शिष्यों ने उसे समाज के सामने लाकर रख दिया है.
वह मुक्त इंसान थे, जागृत थे, उनके शब्द सीधे उन लक्ष्यों को भेद रहे थे, जहाँ तक देख पाने की तुम्हारी दृष्टि ही नहीं. शायद रजनीश तुम्हें समय रहते अर्जुन के जैसे वह दिव्य चक्षु नहीं दे पाये जिनके सहारे तुम उस विराट सत्य का समग्र दर्शन कर सकते, जो विराट रजनीश की जिह्वा से, आत्मा से, मन से , तन से उनके प्रत्येक भाव और आभामण्डल से सतत अनवरत प्रवाहित हो रहा था.
हाँ, बिना दिव्य चक्षुओं के तुम न तो उनकी देशना को कभी समझ पाओगे और न ही उस सन्यास के दर्शन कर पाओगे, जिस सन्यास की दीक्षा की परिकल्पना उन्होंने की थी.
तुम सिर्फ और सिर्फ माँ कितनी आईं हैं? कितने और कौन कौन से स्वामी आये हैं? इसकी गिनती मन ही मन गिनते हुए, ठुमके लगाते हुए, ओशो! ओशो! यह एक शोर संसार में और फैलाते जाओगे, इससे अलग और कुछ भी तुम्हारे वश में है ही नहीं.
हो सके, तो मत बदनाम करो, अपने गुरु और उसकी बेशकीमती देशना को, समय रहते जाग जाओगे, तो तुम्हारा और तुम्हारी आने वाली पीढ़ी का कल्याण होगा, और आने वाली मानवता तुम्हें नाकारा कहकर, गाली देकर कम से कम दुत्कारेगी नहीं, इस एक अभिशाप से बचे रहोगे.
मुक्त सिर्फ एक स्त्री ही करती है, जिस प्रकार एक पुरुष एक स्त्री को, शेष सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी वासना और तुम्हारी लम्पटता का तुम्हारी पीठ पीछे मखौल उड़ाते हुए, तुम्हारा भावनात्मक, शारीरिक और आत्मिक शोषण ही करते हैं, अब यह तुम पर है, तुम कौन सा मार्ग चुनते हो?
डॉ. राघव पाठक
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