“नवयुवकों! वह स्त्री, जिसे मैं प्यार करता हूँ, उन्हीं स्त्रियों जैसी है जिनसे तुम प्यार करते हो. यह एक विचित्र जीव है जिसे देवताओं ने कबूतर की संधि-प्रियता, सांप के दांवपेंच, मोर का गर्व और अभिमान, भेड़िये की कपट नीति, गुलाब के फूल का सौन्दर्य और अंधेरी रातों के डर को मुट्ठी भर राख और चुल्लू भर समंदर के झाग में मिलाकर बनाया है..
मैं इस स्त्री को, जिससे मुझे प्यार है बचपन से जानता हूँ, जबकि मैं खेतों में उसके पीछे पीछे दौड़ता था, और बाज़ारों में उसका आँचल पकड़ लेता था.
मैं उसे अपनी जवानी के दिनों में भी जानता था, जबकि मैं किताबों में उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब देखता था. शाम के बादलों में मुझे उसका रूप दिखाई देता था और नहरों की जलधारा के कलकल में मैं उसकी आवाज़ का संगीत सुनता था.
मैं उसे अपनी प्रोढ़ वय में भी जानता था, जबकि मैं उसके पहलू में बैठकर उससे बातचीत करता था. विभिन्न विषयों पर उससे प्रश्न पूछता था, अपने दिल के दर्द की शिकायतें लेकर उसके पास जाता था और अपनी आत्मा के रहस्य उसे बताता था.
यह जो कुछ था कल था, और ‘कल’ एक सपना है, जो अब कभी वापस नहीं आ सकता. लेकिन आज- आज वह स्त्री, जिसे मेरा दिल प्यार करता है, एक सर्द, वीरान और बहुत दूर की दुनिया में चली गयी है, जिसे एकांत और विस्मृत का देश कहते हैं. पर इस स्त्री का नाम क्या है, जिसे मेरा दिल प्यार करता है? उसका नाम है ‘जीवन’.
– खलील जिब्रान (पुस्तक ‘विद्रोही आत्माएं’ से)