बहुत पहले एक इंटरव्यू देते समय फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने बताया कि विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तानी सेना चुनने का विकल्प भी दिया गया था.
पत्रकार ने पूछा, “अगर आप ने पाकिस्तान सेना चुनी होती, तो क्या होता?”
बुद्धिमान, हाजिरजवाब और विनोदी स्वभाव के धनी फील्ड मार्शल ने कहा, “तो 1971 में पाकिस्तान जीत गया होता.”
इसे जीत का श्रेय लेने का दुस्साहस मानकर इस महानायक पर तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की वक्र दृष्टि कब तक रही, आप अनुमान लगा सकते हैं?
सेवानिवृत्ति के बहुत बाद तक और सम्मान देने के मामले में निधन के भी बहुत बाद तक. जबकि वो नेतृत्व जो 71 में सत्ता में था, कब का परलोकवासी हो चुका था लेकिन विरासत तो वही थी.
इस रैंक के अफसर को एक कार तक की सुविधा नहीं दी गई. पेंशन और अन्य वित्तीय उपलब्धियाँ तब जाकर रेगुलराइज हुईं जब डा.कलाम राष्ट्रपति और अटल बिहारी प्रधानमंत्री के पद पर आए.
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का निधन हुआ तो उन्हें श्रद्धांजलि देने न तो उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह गए, न राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल गईं और न ही रक्षा मंत्री एंटोनी गए थे.
ऐसे war hero की अंत्येष्टि तक में ये लोग क्यों नहीं गए थे?
पूछिएगा किसी ऐसे से जो आपको सिखा रहा हो कि सेना के पराक्रम का राजनैतिक श्रेय नहीं लेना चाहिए.
पूछिएगा किसी ऐसे से जो ताना मारे कि रक्षामंत्री सर्जिकल स्ट्राइक का गौरवगान करने गोवा से भोपाल तक जाते हैं.
पूछिएगा किसी ऐसे से जो disabled soldiers की पेंशन कम किए जाने का भ्रम फैला कर अपने चेहरे उजले दिखाना चाहते हैं.
निराधार प्रश्न उठाते ही इसलिए हैं, ताकि इनके काले कारनामे ढंके रहें. सब समझ रहे हैं हम जानम, पूरा हिसाब भी लेंगे.