संस्कृति कोई बुरी नहीं होती गर संस्कारित हो, लेकिन संस्कृति और विचारधारा में फर्क होता है. मुझे किसी का झूठा नहीं खाना चाहिए ये मेरा विचार है. मैं किसी का झूठा खाती ही नहीं यह मेरे संस्कार है.
इसके पीछे कई कारण है जो वही समझ सकता है, जो झूठा खाने से लेकर झूठा न खाने तक की यात्रा से गुज़रा हो. यही बात किसी और के कपड़े पहनने न पहनने पर भी लागू होती है. और यही बात किसी और को छूने न छूने पर भी लागू होती है.
मुझ पर छुआछूत का लांछन लगाने से पहले पूरी बात को समझ लीजिये.
मैंने अपनी माँ और दादी को बचपन से पान खाते हुए देखा है, जब मैं माँ से पान मांगती थी तो वो मुझे अपने मुंह से चबाया हुआ पान निकालकर थोड़ा सा मेरे मुंह में डाल देती थी… मुझे कभी खाते समय यह नहीं लगा कि मैं किसी का चबाया हुआ पान क्यों खा रही हूँ क्योंकि वो मेरी माँ है.
माँ को मैंने मंदिर जाते हुए बहुत ही कम देखा, वो भी सब जा रहे हैं तो चली जाती थी.. कोई आस्था उनके मन में नहीं थी… उनको घर में दीया बत्ती करते भी नहीं देखा.
दादी मेरी रोज़ सुबह शाम दीया बत्ती करती थी, मंदिर जाती, प्रसाद बांटती. उनसे कभी पान मांगती तो वो हमेशा नया पान बनाकर देती.
वो खाना खाती तो ऐसे कि उनकी थाली से खाना खाने का मन कर जाता. लेकिन वो कभी झूठा नहीं खिलाती थी… माँ की थाली से अक्सर झूठा खाया है…
तो मेरे अन्दर माँ का प्रभाव ज्यादा आया, 25 वर्ष की उम्र में दो बेटियों की माँ बन चुकी थी… सासुमा अक्सर इस बात से चिढ़ती थी कि बेटियों को झूठा मत खिलाया करो, रजस्वला होने के दौरान तो बिलकुल नहीं…
मैं आधुनिक नारी, और छुआछूत को न मानने वाली बाग़ी महिला, सासुमा से पटती नहीं थी उस उम्र में, तो जानबूझकर बेटियों को झूठा खिलाती थी…
हरतालिका तीज और करवा चौथ जैसे व्रत मुझे निहायत बकवास लगते थे… मेरे अन्दर नारी सशक्तिकरण और नारीवादी नारे प्रज्वलित हो जाते…
चूंकि उम्र कम थी और सारे कलह के बाद भी बड़ों का अपमान करना संस्कार में नहीं था तो अपनी भड़ास निकालने के लिए चुपके से खाना खा लेती थी… लो करवा लो व्रत, घर दो कमरे का था तो चुपके से खाना मुमकिन न था, तो गुस्से में आकर रोटी का रोल बनाकर बाथरूम में छुपकर भी खाया है…
ये वो दौर था जब ब्राह्मण परिवार में शादी होने के बावजूद घर के बाहर छुपकर खूब नॉन वेज खाया… ग्यारह साल तक मैं अपनी विचारधारा और संस्कारों के द्वंद्व में फंसी रही, कुछ है जो ठीक नहीं है जीवन में, लेकिन समझ नहीं आता था क्या….
फिर स्वामी ध्यान विनय का जीवन में आगमन हुआ… वो एक प्रवेश द्वार था एक नई दुनिया में आने का… विचारों और संस्कारों को अलग अलग करके देख सकी…
अब उपवास करती हूँ, लेकिन वैसे नहीं जैसे अन्य औरतें करती हैं, मैं दोनों समय भोजन करके भी उपवास कर सकती हूँ… बिना स्नान और मंत्र जाप के भी पूजा कर सकती हूँ…
इसके आलावा पिछले आठ सालों की अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान बहुत से ऐसे अनुभव हुए, जब मैं एक मुस्लिम व्यक्ति के दरबार में माथा टेक कर आती थी, तो कभी किसी हिन्दू सवर्ण जाति के व्यक्ति के हाथों से कुछ लेकर खाना भी मेरे लिए वर्जित था…
एक बहुत करीबी व्यक्ति हैं, अच्छी ऊंची जाति का हिन्दू परिवार… लेकिन उनके घर से जब भी दूध से बनी कोई वस्तु आती तो हमारे घर में टिक नहीं पाती, कभी बिल्ली ही मुंह मार कर चली जाएगी, कभी किसी के हाथों से अचानक गिर जाएगी या कभी यूं ही अपने आप खराब हो जाएगी…
या खा लिया तो किसी न किसी की तबीयत खराब हो जाएगी. हम इन संकेतों को समझ गए, और उनके यहाँ से कोई भी खाने पीने की वस्तु आती तो हम कोशिश करते न खाएं….
स्वामी ध्यान विनय किसी का झूठा नहीं खाते ना ही अब मैं, घर के बाहर होटल में खाने का तो सवाल ही नहीं उठता… मैंने अनुभव से सीखा क्योंकि जब भी खाया है कुछ ऐसा ज़रूर हुआ है जो किसी भी रूप में सुखद नहीं था.
लेकिन माँ की आदतें इतनी जल्दी कैसे जाएगी… कभी कभी अपने दोनों बेटों को जब एक ही ग्लास से पानी पिलाने लगती हूँ तो दोनों बेटे अपने आप ही कह देते हैं… “मैं किसी का झूठा नहीं पीता”.
ये मैंने उन्हें नहीं सिखाया, और चार-पांच साल की उम्र में ऐसी कोई विचारधारा बन जाना भी मुमकिन नहीं … ये उनके वो संस्कार है जो स्वामी ध्यान विनय की आध्यात्मिक ऊर्जा और मेरी आध्यात्मिक यात्रा के बाद मेरी कोख से जन्म लेने के बाद उन्होंने पाए. बड़े बेटे का तो जन्म ही मेरे संन्यास लेने के ठीक नौ महीने बाद हुआ है, वो एक पूर्ण योगी की आत्मा है, ये हमें उसकी चमत्कारी बातों से जब तब पता चलता रहता है….
व्यक्तिगत अनुभव से जो मेरे लिए वर्ण व्यवस्था है वो मुझे प्रकृति की बनाई हुई व्यवस्था के करीब लगती है…
समाज में जो वर्ण व्यवस्था है उसके नाम पर पिछली पीढ़ी ने फायदा उठाया है, समाज को नुक्सान भी हुआ है, लेकिन समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाता है, अब वैसा भेदभाव देखने को नहीं मिलता.
लेकिन ये जो व्यवस्था है वो स्थूल रूप से दिखाई देनेवाली वस्तु नहीं है, ये सूक्ष्म व्यवस्था है जिसे केवल एक साधक समझता है और उसका पालन करते हुए आगे बढ़ता है… इसका उस जात-पात से कोई लेना देना नहीं है जिसके आधार पर आरक्षण व्यवस्था आई है.
और यूं हर व्यक्ति अपनी यात्रा में साधक ही है, किसी को इसका ज्ञान है कोई इसे संज्ञान में लेना ही नहीं चाहता.
उस सर्वोच्च सत्ता को हम ईश्वर अल्लाह कहने के बजाय यदि ब्रह्म नाम से पुकारे, तो उस ब्रह्म को प्राप्त करने की यात्रा पर जो है वही ब्राह्मण है. इसलिए एक मुस्लिम भी ब्राह्मण हो सकता है और एक सवर्ण जाति का भी शूद्र हो सकता है.
एक सबसे अच्छा उदाहरण है महर्षि कलाम, मैं उन्हें महर्षि कहती ही इसलिए हूँ क्योंकि उन्होंने ब्रह्म के उस गूढ़ रहस्य को पहचान लिया था… बहुत कम लोग जानते हैं कि वो गीता पढ़ने के अलावा मंत्र जाप भी करते थे…
एक और उदाहरण है मेरे गुरु श्री एम, जो नाथ परम्परा के योगी हैं, लेकिन उनका वास्तविक नाम है मुमताज़ अली. यानी उन्होंने एक मुस्लिम परिवार में जन्म लिया, लेकिन अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पूरा करने के बाद वो उस ब्रह्म को पा गए हैं जिसे हम ब्राह्मणत्व कहते हैं…