कहते हैं कि दाउद ने निर्माताओं को डराकर कलाकारों को अलग तरह की ताकत दी. कलाकारों ने भी भाई के नाम पर डराने का तरीका अपनाया. मगर निर्माता उनसे भी ज्यादा तेज निकले.
कुछ छोटे निर्माता दाउद से फिल्में बनाने के लिए उधार लेने लगे. दाउद का काला धन फिल्म के निर्माण में लगता था और निर्माता फिल्म के जारी होने के बाद उसे धन लौटाते थे. फिल्म के प्रदर्शन के बाद दाउद को सफेद धन मिलता था.
कुछ निर्माताओं ने तो माफिया जगत के ही लोगों को चूना लगाने का धंधा शुरू कर दिया. निर्माता को माफिया का जो काला धन मिलता था, उसे हासिल करने के लिए माफिया वाले कानून का सहारा तो नहीं ले सकते थे. लिहाजा इसका लाभ उठाने के बदले निर्माता माफिया के चंगुल में फंसते गए.
फिर निर्माता से धन वसूलने के लिए माफिया के गुंडे उनके पास आने लगे. पहले तो आसानी से पैसे मिल जाते थे. पैसे नहीं मिले तो उनका घर ही छीन लेते थे माफिया के गुंडे. धन वसूलने की जिम्मेदारी वसई के विधायक हितेन्द्र ठाकुर के भाई, भाई ठाकुर, जो इन दिनों जेल में है, को सौंपी गई थी. अब तो नजीम जैसे निर्माता वह काम करते हैं.
अपनी कालर ऊंची करने की लालसा में कलाकारों और निर्माताओं का सम्पर्क माफिया से बढ़ता गया. माफिया के गुंडे मुम्बई में जुहू, आदर्श नगर और मिल्लत नगर में रहने वाले कुछ निर्माताओं और कलाकारों के यहां शरण लेने लगे.
ये गुंडे अपनी जान बचाने के लिए कलाकारों और निर्माताओं को ब्लैकमेल भी करने लगे. माफिया के बढ़ते दायरे से शरीफ निर्माताओं की परेशानी बढ़ने लगी, क्योंकि उनकी फिल्मों में भी माफिया के कलाकारों को लेने की धमकियां आने लगीं. इन धमकियों ने बॉलीवुड में सनसनी ही नहीं फैलाई, बल्कि माफिया के दूसरे गुटों को भी यहां अपना राज चलाने के लिए प्रेरित किया.
दाउद के अलावा अरुण गवली ने भी अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश की. फिर तो यहां का माहौल ही बदल गया. अपना दबदबा बढ़ाने के लिए दो अपराधी गुटों के बीच आमना-सामना होने लगा. इससे निर्माताओं की परेशानी इसलिए बढ़ गई कि उन्हें दोनों अपराधी गुटों से आर्थिक मदद लेने के संकेत मिलने लगे.
संकेत ने निर्माताओं को दो खेमों में बांट दिया. इसका परिणाम सामने आने लगा. एक अपराधी गुट के गुंडे दूसरे अपराधी गुट के सम्पर्क के निर्माताओं को डराने-धमकाने लगे. निर्माता इनसे अपना नाता तोड़ तो नहीं पाए मगर बचने की जरूर कोशिश की.
फिर माफिया के गुंडों ने हफ्ता वसूलने का धंधा शुरू किया. कुछ निर्माता माफिया गुटों के लिए मुखबिर का काम करने लगे. दाउद को फोन पर हर तरह की खबर मिलने लगी, तो अरुण गवली को भी जानकारी दी जाने लगी. इसका फायदा माफिया को मिला.
माफिया के गुंडों ने फिल्म व्यवसाय की भी जानकारी ली और फिल्म के संगीत अधिकार और समुद्रपारीय अधिकारों को हथियाने का धंधा भी शुरू किया. इसमें भी किसी गुट ने अपने नाम पर यह धंधा शुरू नहीं किया. इसके लिए डमी वितरक तैयार किए गए. लेकिन इससे पहले दाउद के गुट ने अवैध वीडियो के धंधे में अपना पैर जमा लिया था.
इसमें उसे मैग्नम के हनीफ समीर और एक अन्य संगीत कम्पनी का पूरा सहयोग मिला. एक संगीत कम्पनी की सहयोगी कम्पनी दुबई में है, जिस पर दाउद का कब्जा है. आज भी उसके सहयोग से हर नई फिल्म के अवैध वीडियो नेपाल और मलेशिया के रास्ते हिन्दुस्थान और पाकिस्तान में धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं.
इस बारे में सरकारी तंत्र को न सिर्फ पता है, बल्कि कुछ लोग इस धंधे में सहयोगी भी हैं. इसलिए सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इस धंधे पर रोक लगाने में सफलता नहीं मिल रही है.
मुम्बई बम काण्ड के बाद उन फिल्म वालों की गतिविधियां काफी कम हो गईं, जो अंडरवर्ल्ड के लिए काम कर रहे थे. लगभग 8 साल बाद बॉलीवुड की स्थिति में कुछ सुधार की रोशनी दिखाई पड़ रही थी. लेकिन महाराष्ट्र के गृहमंत्री छगन भुजबल के बड़बोलेपन के कारण बॉलीवुड में छुपकर माफिया के लिए काम करने वालों ने अपने हाथ फिर लम्बे करने शुरू कर दिए.
कुछ फिल्म वालों और कलाकारों को धमकियां देने और उन्हें माफिया के इशारे पर नाचने के लिए खुले रूप से फोन किए जाने लगे. इसका पूरी तरह खुलासा तो नहीं हुआ, लेकिन माफिया की जड़ तक पहुंचने के लिए निर्माता नजीम रिजवी को गिरफ्तार कर लिया गया.
1983 में नजीम रोजी-रोटी की तलाश में मुम्बई आया था. उसे एक कला निर्देशक के सहायक के रूप में काम मिला. बाद में उसे निर्माता बनने का भूत सवार हुआ. उसने कम बजट की फिल्मों जैसे मजबूर लड़की, आपातकाल और अंगारवादी का निर्माण किया.
उसका नाम सुर्खियों में तब आया जब उसने मुम्बई पुलिस और मीडिया को बताया कि उसकी फिल्म अंगारवादी को दाउद ने प्रतिबंधित कर दिया है. कश्मीर पर बनी इस फिल्म में मस्जिद और मंदिर के कुछ आपत्तिजनक दृश्य थे. उन दिनों दाउद के भाई अनीस और सिपहसालार अबू सलेम ने नजीम को जान से मारने की धमकियां दी थीं.
नजीम ने इसकी रपट पुलिस में भी दर्ज कराई थी. उस समय नजीम को न सिर्फ पुलिस सुरक्षा प्रदान की गई थी, बल्कि उसके फोन भी टेप किए गए थे. आखिर में नजीम ने आपत्तिजनक दृश्य काट कर फिल्म प्रदर्शित की. लेकिन उसकी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा सकी.
कहा जाता है कि इसके बाद ही वह दाउद के सम्पर्क में आया. बड़ी फिल्म बनाने के लिए उसे धन का आश्वासन मिला. उससे कलाकारों के बारे में पूछा गया. उसने अपनी पसंद के पहले कलाकार के रूप में सलमान खान का नाम बताया. हालांकि सलमान ने उसकी फिल्म अंगारवादी में काम करने से इनकार कर दिया था, इसलिए नजीम सलमान को अपनी ताकत का एहसास कराना चाहता था.
तब दाउद के सिपहसालार छोटा शकील ने सलमान को धमकाया, जिसके बाद सलमान ने उसकी फिल्म चोरी-चोरी, चुपके-चुपके में काम करना स्वीकार किया. कहा तो यह भी जाता है कि दिल से में प्रीति जिंटा के काम को देखकर छोटा शकील उससे बहुत प्रभावित था. छोटा शकील ने अपनी पसंद की नायिका प्रीति को इस फिल्म में काम करने के लिए मजबूर किया. रानी मुखर्जी और निर्देशक अब्बास-मस्तान से कम पैसे में काम करने लिए कहा गया था.
सलमान शूटिंग करने में जब आनाकानी करने लगा तो उसे फिर धमकाया गया. कहा जाता है कि सलमान ने छोटा शकील को संकेत दिया था कि नूरा उसे जानता है. मगर उसकी एक न सुनी गई. मुम्बई बम काण्ड के दौरान जब कलाकारों से पूछताछ हुई थी तब सलमान के नूरा से जान पहचान की बात उजागर हुई थी.
सलमान और नूरा के छायाचित्र पुलिस के पास हैं. नूरा ने सलमान द्वारा अभिनीत फिल्म पत्थर के फूल में गाने लिखे थे. उसी दौरान दोनों की दोस्ती हुई थी, ऐसा बताया जाता है.
क्रमश:
– पांचजन्य से साभार (31 दिसम्बर 2000 में प्रकाशित श्री नवीन नयन का लेख )