यह मोदी विरोध नहीं, बुझते दीयों की फड़फड़ाहट है

यह एक ख़ास किस्म की असहजता है…. उस वर्ग की जो इतने वर्षों तक इतराता रहा है. उसकी विशिष्टता को आपने चुनौती दी है… आपने मतलब सालों तक एक ख़ास विचारधारा का झुनझुना थामे, एक ही तरह के वादे सुनते, एक ही तरह की कार्यशैली देखते आम इंसान. गरीबी भाड़ में जाएगी, देश में समानता आ जाएगी, देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र आ जाएगा बस एक बार हमको जिता कर तो देखिए… इन वादों को जनता ने बहुत सुना…. अच्छी जगह स्थापित दाढ़ी बढ़ा कर, मोटा गोल फ्रेम चश्मा लगाकर, शब्दों को चबाकर और अपनी सारी धूर्तता को अपनी घाघ विनम्रता के नीचे दबाए बुद्धिजीवी वर्ग को भी आपने खूब देखा.

वह आईआईटी का पढ़ा हुआ है, वह राजस्व सेवा में रहा है, वह बड़े बाप की औलाद है, ओह कितना हैंडसम है, हाय कितनी सुन्दर है, आह क्या अंग्रेजी है इसकी, वाली विचारधारा को आपके अक्खड़ आत्मगौरव की अनुभूति ने ललकारा है.. कैंब्रिज को इग्नू ने टक्कर दी इसलिए कैंब्रिज को दिक्कत है… मोटे चश्मे वाले दढ़ियल से आप तर्क करते हैं इसलिए उस चश्मे को आपसे दिक्कत है…आप एक कलाकार को अव्वल दर्जे का बुद्धिजीवी नहीं मानते इसलिए उसे भी आपसे दिक्कत है…

उसकी सबसे बड़ी दिक्कत है आपका अतीत की तरफ लौट कर उसमें से कुछ अच्छाइयां ढूंढ लाना जिसके होने को ये लोग झुठलाते रहे, इसलिए ताकि उसी अतीत में घुस कर आप इनके करतबों का आईना इन्हें ही न दिखा दें…

बस इस आत्मगौरव का दामन थामे रहिए.. आप उस दबाव को महसूस करिये जो इस सरकार पर है… क्यों न नेताजी के फाइल्स का खुलासा पहले हुआ? क्यों इंदिरा जी ने सैनिकों की ओआरओपी ख़त्म की? क्यों 62 की लड़ाई की रिपोर्ट दबाई गई? क्यों न इंदिरा जी ने पंजाब की तत्कालीन भ्रष्ट सरकार की छुट्टी की जिससे बब्बर खालसा न पनपे? क्यों क्वात्तरोच्ची भागने में सफल हो जाता है और क्यों भोपाल गैस ट्रेजेडी का आरोपी रातों रात सफलतापूर्वक रफूचक्कर हो जाता है?

सवाल सर्जिकल स्ट्राइक के दावे के सच होने या न होने का नहीं है… सवाल उससे उपजे आत्मगौरव का है, जनसामान्य की भावनाओं के मज़बूत होने का है… यह वास्तव में मोदी विरोध नहीं है, जो शायद आप समझ रहे हों, यह वास्तव में आपके उसी आत्मगौरव के बढ़ जाने का है जो यह विशिष्ट वर्ग कभी न चाहा था, न चाहेगा…

यह टक्कर मोदी बनाम अन्य की नहीं है, यह है आप बनाम उनकी, सामान्य बनाम विशिष्ट की, अक्खड़ ईमानदारी बनाम धूर्तता की….

दिए की लौ बुझते समय ज़ोर से फड़फड़ाती है… मैं विशिष्ट का फड़फड़ाना देख रहा हूँ… मैं देख रहा हूँ दूर-दराज का एक कस्बाई छोटा कवि मोटी फ्रेम वाले से बेहतर कविता रच रहा है… मैं देख रहा हूँ दूर अपने हल से थोड़ी मोहलत लेकर स्टेटस डालता किसान, कृषि संबंधी योजना आयोग के पूर्व मेंबर के ज्ञान की हंसी उड़ा रहा है….

मैं देख रहा हूँ, भारत आज जाग रहा है और विशिष्ट आँखों में नींद नहीं है…

क्योंकि उसे भी पता है जिसे वह आपकी असहिष्णुता कह रहा है वह असल में आपका उसके जूतों के तलवे से दबा हुआ आत्मगौरव है जो अब दबने को तैयार नहीं है.

उजबक देहाती

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