देश के राजनीतिक रंगमंच पर अपने-अपने किरदार निभाते दो बड़े अभिनेताओं को देखा जाए. एक ओर तो मोदी दिखते हैं अपने आभामंडल के साथ, और दूसरी ओर एक हारे हुए दल के कमज़ोर घायल नेता राहुल गांधी!
राहुल की एक हास्यास्पद छवि उकेरने में भाजपा और मोदी भक्त तो जी-जान से लगे ही रहते हैं, जाने-अनजाने में अब कांग्रेस पार्टी भी इसमें सहयोग करती दिख रही है. और तो और, खुद राहुल गांधी इस छवि को या तो और अधिक मजबूत किए दे रहे हैं, या उसके स्थान पर एक बेहतर, परिपक्व और गंभीर नेता की अपनी इमेज को स्थापित ही नहीं कर पा रहे.
राहुल गांधी जब-जब भाषण देते हैं, क्या भाजपा आह्लाद में लोटती नहीं दिखती और कांग्रेस पर क्या अवसाद की छाया उतरती नहीं दिखाई पड़ती! भाजपा के पास कई वजहें हैं राहुल का अहसानमंद होने के लिए. मोदी का बहुत बड़ा काम तो वह अकेले ही कर दे रहे हैं.
क्या राहुल की उपस्थिति स्वयं कांग्रेस को ही असहज महसूस करा रही है? क्या पार्टी उनकी परिपक्व अपरिपक्वता से लगातार परेशान है? राहुल के तेवर ‘फेक’ क्यों लगते हैं, उनकी मुद्राएँ नाटकीय क्यों लगती हैं, वे लगातार ‘सूट बूट’ की ही बातें क्यों दोहराते हैं, क्या उनके भाषण लिखने वालों को उनकी वक्तृता के हास्यास्पद होने की कोई चिंता नहीं?
पिछले साल ऐस्पन जाने से पहले राहुल गांधी ने बिहार के चंपारण में भाषण दिया. उसे सुनने के बाद यूट्यूब पर जगह-जगह पोस्ट किए गए. उनके अजीबोगरीब भाषण भी मैंने गौर से देखे. मैं उनकी देह भाषा समझने की कोशिश में था. उनके व्यवहार में मुझे एक हारता हुआ लोकतंत्र दिख रहा था.
गंभीरता से देखें तो राहुल का हास्यास्पद और अगंभीर होना भारतीय लोकतंत्र की हार है और कांग्रेस पार्टी को इसके लिए बहुत अधिक चिंतित होना चाहिए. यह बड़ा दुर्भाग्य है कि वह जितना अधिक गंभीर होने के प्रयास करते हैं, उतना ही उनका उथलापन उभर कर आता है.
मोदी की अदम्य महत्वाकांक्षा ने उनको गंभीर बनाया हुआ है. उनके लक्ष्य भले ही अगंभीर हों, क्योंकि उन्हें अपने साथ कुछ अदूरदर्शी ताकतों को लेकर चलना पड़ रहा है, पर माने न मानें, मोदी स्वयं में एक गंभीर नेता हैं. अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वह जब नाटकीय व्यवहार करते हैं, तो उसमें भी एक सुविचारित उद्देश्य होता है, उसका भी अपना एक आत्म नियंत्रण होता है.
राहुल की नाटकीयता उनके नियंत्रण से बाहर होती है. उन्हें देख कर लगता है कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं कि वह हास्यास्पद और नाटकीय हो रहे हैं. दूसरी ओर मोदी की नाटकीयता में एक सजगता दिखती है. यह कांग्रेस पार्टी और स्वयं राहुल गांधी का दुर्भाग्य है कि वह मोदी के नेतृत्व से कुछ सकारात्मक सीख नही पाए हैं.
पिछले वर्ष सोशल मीडिया पर सक्रिय कांग्रेस विरोधियों और मोदी भक्तों ने तो राहुल की ऐस्पन यात्रा को अच्छे से खंगाल ही डाला. ट्विटर पर आई उनकी तस्वीरों का बारीक विश्लेषण किया गया. क्या चार्ली रोज़ जैसे बड़े पत्रकार के सम्मलेन में लोग आधी बांह के जैकेट या जर्सी जैसे कैज़ुअल कपड़े पहन कर जाते हैं?
क्या वहां स्टील के जग में पानी दिया जाता है, जैसा कि हिन्दुस्तान के ढाबों में होता है; क्या वहां सॉफ्ट ड्रिंक की शीशे की बोतल ही मेज पर रख दी जाती है, जो यहाँ भी सिर्फ छोटे से छोटे ढाबों और भोजनालयों में ही होता है?
ये सवाल दिलचस्प थे, गुदगुदाते भी. बताया गया था कि ऐस्पन की म्युनिसिपैलिटी को इस कार्यक्रम की कोई पूर्व सूचना नहीं दी गई थी. तस्वीरों में ये अजीबोगरीब बातें देख कर विरोधी कांग्रेस पार्टी और राहुल पर टूट पड़े और दावा किया कि वह इस सम्मलेन में गए ही नहीं!
कांग्रेस की विफलता और मोदी की जीत के साथ इस देश के कई गंभीर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जुड़े हुए हैं. पूरा देश जानना चाहेगा कि कांग्रेस पार्टी भाजपा से निपटने के लिए कौन सी रणनीति अपनाने जा रही है, या फिर क्या अब देश एक विपक्ष विहीन राजनीति के साथ रहने की आदत डाल ले?
राहुल गांधी ने चंपारण में जो भाषण दिया था उसमें वह लगातार मोदी के सूट का मज़ाक़ उड़ाते दिखे. अब उनका सूट-बूट विरोधी तेवर इतना उबाऊ और बासी हो चला है कि यदि उनकी किसी जन सभा में भारी संख्या में लोग सूट-बूट में दिखें, तो आपको ताज्जुब नहीं होना चाहिए.
क्योंकि उनकी इस अनावश्यक और उबाऊ पुनरावृत्ति के विरोध में लोग ऐसा कर सकते हैं! यदि सूट-बूट से राहुल गांधी का अर्थ किसी संभ्रांत, एलीट संस्कृति से है जिसका वह मोदी सरकार को नुमाइंदा मानते हैं, तो उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि इस संस्कृति के सबसे बड़े पोषक तो उनकी पार्टी के नेता ही रहे हैं. उनकी अंग्रेजी, उनके हार्वर्ड और कैंब्रिज, उनके एलीट तौर तरीके! कोई पार्टी उनके मुकाबले में खड़ी ही नहीं हो सकती इस मामले में तो!
राहुल ने अपने भाषण में इतनी बार सूट-बूट कहा कि ट्विटर पर उनका मज़ाक़ उड़ने लगा. कुछ लोगों ने राहुल की उनके पिता और नाना के साथ तस्वीरें ट्वीट कीं. तीनों का लिबास सूट-बूट था. कुछ लोगों ने याद दिलाया कि नेहरू जी के सूट पेरिस से धुलकर आते थे.
एक बार दलितों के उत्थान से सम्बंधित एक बैठक में राहुल खगोलशास्त्र पर भाषण देने लगे और पृथ्वी या बृहस्पति की कक्षा से किसी उपग्रह या रॉकेट को निकलने के लिए आवश्यक एस्केप वेलॉसिटी के बारे में विस्तार से बताने लगे. यह भी यूट्यूब के उनके सबसे हास्यास्पद भाषणों में शामिल कर दिया गया है.
पिछले कुछ महीनों से राहुल यह साबित करना चाहते हैं कि मोदी सरकार धनवानों की सरकार है, जबकि वह स्वयं गरीबों के मसीहा हैं. राहुल लगातार मोदी पर व्यक्तिगत तौर पर प्रहार करते दिखते हैं और राजनीतिक दृष्टि से यह उनकी सोच के दिवालियेपन का सूचक है.
मोदी क्या कर रहे हैं, यह पूरा देश देख रहा है; इसे दोहराने या इसकी व्याख्या करने से बेहतर होगा कि राहुल अपनी पार्टी और अपना नजरिया लोगों के समक्ष रखें. नकारात्मकता उन्हें बहुत दूर नहीं ले जाने वाली.
इसकी भी संभावना है कि राहुल राजनीति में दिलचस्पी ही न लेते हों, हो सकता है उनके भीतर देश-दुनिया को लेकर कोई गहरी समझ न हो, और फिर भी जिम्मेदारी के नाम पर और पार्टी के दबाव में आकर उन्हें दिलचस्पी लेने का दिखावा करना पड़ता हो. उनके हाव-भाव, वक्तृता और नाटकीय शैली में ये बातें साफ़ दिखती हैं. लोकतंत्र के लिए यह एक शुभ संकेत नहीं. विपक्ष का कमज़ोर होना तानाशाही प्रवृत्तियों के लिए पोषक खुराक का काम करता है.
इस बीच राहुल की परिपक्व अपरिपक्वता कांग्रेस के लिए अवसाद और भाजपा के लिए आह्लाद का कारण बनती रहेगी. राहुल के साथ एक ओर नीतीश और लालू जैसे बड़े विपक्षी नेता भी असहज महसूस करते हैं, दूसरी ओर वह आम जनता के साथ भी संवाद स्थापित नहीं कर पा रहे.
उनकी अपनी पार्टी जैसे उन्हें बस ढो रही है. अब राहुल जाएँ तो जाएँ कहाँ? धीरे-धीरे सारी जगहें चुक जाएंगीं, और फिर क्या इसके बाद ही खुद की और पार्टी की खामियों को समझ पायेंगे देश के ‘भावी प्रधानमंत्री?
राहुल की ऐसी भद्द पिट रही है, और जिस तरह से नियमित अंतराल पर ऐसा हो रहा है, लगता है कि जल्दी ही विरोधियों का दिल भी पसीज उठेगा उनकी दशा देखकर. ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है,
इस रंग से उठाई कल उसने ‘असद’ की नाश* (Dead body)
दुश्मन भी जिसको देख के ग़मनाक हो गए.
– वासुदेव कालरा