भारत में 2500 साल पहले बुद्ध ने अहिंसा का उपदेश दिया था. जिसे बाद में सम्राट अशोक ने पूर्णतया अपना लिया.
उसके बाद प्राचीन भारत का स्वर्णयुग समाप्त हो गया. भारत धीरे-धीरे शक्ति विहीन हो गया. और खण्ड-खण्ड होते-होते अखण्ड भारत से विखंडित भारत बन गया. और कन्याकुमारी से लेकर मध्य एशिया तक फैले विशालतम भारत के लोगों ने 1000 साल लंबी गुलामी झेली.
अहिंसा परमोधर्म के अधूरे वाक्य ने भारत की जड़ों को ऐसा खोखला किया के आने वाली नस्ले खड्ग के वजन और रणभेरियो के स्वर को भुला बैठी.
राजा का धर्म अहिंसा नही हो सकता राजा का धर्म शक्ति से सन्तुलन बनाना हो सकता हैं. राजा के पास यदि दंड की क्षमता नहीं तो वो न्याय को नहीं साध सकता. और न्याय नहीं तो शांति नहीं होगी. और समाज में असन्तोष फैलेगा. जो आज हम देख सकते हैं.
सनातन धर्म में संन्यास आश्रम जीवन का अंतिम चरण हैं ना कि पहला चरण. आयु का वो काल जब व्यक्ति अपने जीवन को पूरी क्षमता से जीने के बाद जीवन के मूल रहस्य को ढूंढता हैं.
मगर हम ने बुद्ध के नाम पर उस सन्यास आश्रम को जीवन के प्रथम तीनों आश्रमों पर थोप दिया. इस अधूरे ज्ञान से जन्म लिया अकर्मण्यता और
भाग्य प्रदत जीवन जीने के ढंग ने. हम कर्म की महत्ता भूल कर पाप पुण्य और ईश्वर पर निर्भर हो गए.
आज भारत और उसके मूल निवासी हिन्दुओं की दुर्गति का कारण यही अहिंसा परमोधर्म हैं. जब की शांति अहिंसा से नहीं शक्ति के संचय और संतुलन से आती हैं.
जीवित सभ्यताएं हिंसक ना हो मगर विद्रोही जरूर होती हैं. स्वतन्त्रता दान में ली जाने वाली वस्तु नहीं हैं. आप की सवतन्त्रता आप के विद्रोह की क्षमता का पारितोषक हैं. आप में यदि विद्रोह की क्षमता नहीं तो, आप सिर्फ दूसरे की दया पर जीवित हैं. आप के जीवन में कोई स्वर नहीं आप के जीवन में कोई तरंग नहीं.
जो कौम अपने अस्तित्व के लिए खड़ी नहीं होती, वो कौम दूसरी कौमो के लिए दास पैदा करती हैं शासक नहीं. और अंततः वो पूर्ण श्लोक.
अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तदैव च:
अहिंसा भले ही परम् धर्म है मगर धर्म के मार्ग पर चलने में की गई हिंसा भी धर्म ही हैं.
तो हिंसक नहीं मगर विद्रोही जरूर बनें. जीवित सभ्यताएं अपनी स्वतन्त्रता और अपना अस्तित्व स्वयं सुनिश्चित करती हैं.
– कुलदीप वर्मा