शहर अंगुलियों के पोरों पर नहीं, बसता है हथेली की गदैली पर

अमिताभ बच्चन की फिल्म “डॉन” में बंबई नगरिया पर एक गाना था, जिसके अंतरे में कुछ इस आशय की पंक्तियां हैं : “कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा, चर्च का गेट है चर्च है लापता.”

सोचता हूं अगर हिंदुस्‍तान के गली-मोहल्‍लों के नामों के बारे में इसी तरह के सवाल पूछे जाएं तो एक अच्छा-खासा “मोहल्ला पुराण” तैयार हो सकता है.

मैं उज्जैन से हूं, लिहाज़ा अपने मुल्क की पहले सुनाऊं. मसलन, उज्‍जैन में एक गली है, जो “नमकमंडी” कहलाती है. मज़े की बात कि इससे ठीक आगे का चौक “खाराकुआं” है. लेकिन इन दोनों का नमक से कोई ताल्‍लुक नहीं, यहां तो जैन व्‍यापारियों की दुकानें हैं.

इसी तरह “तोपखाने” में कहीं कोई तोप नहीं, “लोहे का पुल” में अब लोहे का कोई पुल नहीं है और फ्रीगंज बस नाम का ही “फ्री”गंज है. शहर का सबसे महंगा इलाका “फ्रीगंज” ही है. “ढाबारोड” पर रोटी नहीं मिलती, गुलाब जामुन मिलते हैं. “पानदरीबे” में रबड़ी की दुकान मशहूर है, पान खाना हो तो “दौलतगंज” जाइए.

अलबत्ता “मगरमुंहा” के नामकरण के पीछे ज़रूर एक दिलचस्प वाकिया है. सन् बासठ की पूर में यहां एक मगरमच्छ आकर फंस गया था, बस तभी से यह मोहल्ला हो गया “मगरमुंहा”.

मोहल्‍लों के नामकरण की महिमा अपरंपार है. आमतौर पर मोहल्‍ले के नामों में “पुरा”, “बाखल”, “दरीबा”, “चौक”, “गंज”, “कलां” वगैरह जुड़ा होता है. कलां का इस्‍तेमाल बड़े गांव के लिए भी होता है. खुर्द छोटा गांव होता है. जैसे “बड़ी खरसोद” अगर “खरसोद कलां” है तो “छोटी खरसोद” कहलाएगी “खरसोद खुर्द”.

बल्‍लीमारां से ग़ालिब याद आते हैं. चूड़ीवालान-झंडेवालान शाने-दिल्‍ली हैं. लेकिन ये बल्ली, चूड़ी और झंडे के पीछे क्या कहानी है, कौन जानता है. धौलाकुंआ और खारी बावली की भला क्या दास्तान है. ये तो रजधानी वाले ही बताएंगे.

मैं आज भी “पिपलानी” को भूल से “पलासिया” बोल जाता हूं. “पिपलानी” भोपाल में है, “पलासिया” इंदौर में. इंदौर की “छप्‍पन दुकानें” बड़ी मशहूर हैं. बीसियों साल हो गए, शहर फैलकर तूम्‍बा हो गया, लेकिन छप्‍पन दुकानें “अब तक छप्‍पन” ही हैं.

इंदौर में ही एक और इलाक़ा है : “जूना रिसाला”. रिसाला पत्रिकाओं-जर्नल्‍स वगैरह को कहते हैं. जूने का मतलब है पुराना. अब भला जूने रिसाले का किसी मोहल्‍ले के नाम से क्‍या सरोकार? हां, रिसाले का एक मतलब फौज-लश्कर से ज़रूर जुड़ा होता है.

इससे तरतीब मिलाकर देखें तो पाएंगे कि इंदौर में एक “छावनी” भी है, जैसे ग्वालियर में “लश्कर” है (वैसे ग्वालियर में एक “थाटीपुर” भी है, अंग्रेजों के ज़माने की “थर्टी फ़ोर बटालियन” अब थाटीपुर हो गई ).

इंदौर में ही राजबाड़े के पास एक बड़ा लोकप्रिय बाज़ार है, जो कहलाता है : “आड़ा बाजार”. मतलब : ख़ुदा जाने. वैसे यहां औरतों के गहने-कपड़े वग़ैरा मिलते हैं.

इसी के पास है “खाना बाजार”. दिन में यह सराफ़ा कहलाता है, रात को खाना बाजार हो जाता है. “मोतीतबेले” के गुण तो हमारे भंडपीर इंदौरी गा ही चुके हैं. इसके पास ही एक “पागनीस पागा” है : सिखों की बस्ती.

कलकत्ते में “पाड़े” बहुत मिलेंगे : “दर्जीपाड़ा”, “धोबीपाड़ा” वगैरह. मुंबई में “बांदरा” के साथ ही “बोरीबंदर” भी है. शैलेश मटियानी के एक उपन्यास का शीर्षक याद आता है : “बोरीवली से बोरीबंदर तक.” “बोरीबंदर” को ही पहले “वीटी” कहते थे, अब यह “सीएसटी” कहलाता है.

थोड़ा-बहुत कबाड़ा अंग्रेज़ी उच्‍चारणों ने भी किया है. जैसे मुंबई का “शीव” अब “सायन” हो गया और “भायखला” “बायकुला” हो गया. अलबत्ता “चिंचपोकली” अब भी “चिंचपोकली” ही है और माशाअल्ला मुद्दतों तक रहेगा.

अब भोपाल पर नज़र डालें. इधर कई गलियों-गेटों के नाम दिनों के नाम पर हैं, जैसे “पीरगेट”, “जुमेराती गेट”, “इतवारा”, “बुधवारा”, “मंगलवारा” वगैरह. एक “पुल पातरा” है, एक “पुल पुख्ता”, तो एक “पुल बोगदा”. पुराने शहर की एक सड़क “घोड़ा नक्‍कास रोड” कहलाती है. लेकिन सबसे ज़बर्दस्त हैं भोपाल की गलियों के नाम.

ज़रा ग़ौर फरमाइए : “शेखबत्ती की गली”, “गुलियादाई की गली”, “काली धोबन की गली”, “बाजे वालों की गली”, “टेढ़ा अतूत गली”, “बीसाहजारी गली”. और हर गली के नाम से जुड़ा है कोई दिलचस्प किस्सा.

हर शहर कई मोहल्लों से बनता है, हर मोहल्ला कई गलियों से. वास्तव में कोई शहर अपनी अंगुलियों के पोरों पर नहीं, हथेली की गदैली पर बसता है. और वहीं होते हैं मोहल्‍ले-पाड़े, गली-दरीबे, जो हर शहर का नमक होते हैं.

सुशोभित सक्तावत

[ तस्वीर : उज्जैन का हनुमानगढ़ी. क्ल‍िक : Sushobhit ]

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