पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने सुभाष चन्द्र बोस जी से संबंधित 64 गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक कर दिया है. निश्चित रूप से इस निर्णय की प्रशंसा की जानी चाहिए. इन फाइलों में क्या है यह तो पता चल ही जायेगा, लेकिन जो इन फाइलों में नहीं होगा आज बताने की ज़रूरत है.
मैं जो लिख रहा हूँ यह मान कर लिख रहा हूँ कि लोगों ने मेरी ‘सुभाष जन्मोत्सव’ श्रृंखला के सभी भागों को पढ़ा हुआ है और जवाहरलाल नेहरू की सुभाष चन्द्र बोस के प्रति दुर्भावना और शत्रुता के कारणों को समझ लिया है. फिर भी आगे के लेख पर बढ़ने से पहले कुछ बातो को अपने ज़हन में रखियेगा-
[सुभाष जन्मोत्सव 1 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
1. 1930 के दशक में नेहरू और बोस यूरोप की यात्राओं पर गए थे और दोनों ने ही उस काल में यूरोप में वामपंथ और सोशलिज़्म का प्रभाव देखा था और प्रभावित हुए थे.
2. 1936 में नेहरू ने बोस और मौलाना कलाम आज़ाद के सहयोग से कांग्रेस के दक्षिणपंथी गुट को शिकस्त दी थी और पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी जी ने इससे असहमत होते हुए भी, सोशलिज़्म का एजेंडा प्रस्ताव पारित कराया था.
[सुभाष जन्मोत्सव 2 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
3. 1936/ 1937 में नेहरू अध्यक्ष रहे और फिर 1938 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे. बोस की, फासिज़्म की विशेषताओं को सोशलिज़्म के साथ समन्वय बनाकर चलने के प्रति कटिबद्धता ने नेहरू को भी असहज कर दिया था. नेहरू पूर्ण सोशलिज़्म को ही भारत के भविष्य का एकमात्र विकल्प देखते थे और बोस सोशलिज़्म को सिर्फ आधार बनाना चाहते थे लेकिन उसमे नाज़िस्म और फासिज्म व्यवस्था में पल्लवित अनुशासन और उद्यमिता का विनमय चाहते थे.
यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि जहाँ बोस ने राजनैतिक जीवन में सैन्य जीवन का अनुशासन और सशक्त केंद्रीय सरकार की वकालत की थी, वहीं बोस ने जर्मनी के नाज़िस्म के सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) शासन व्यवस्था को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया था. नेहरू ज्यादा चिंतित इस बात पर थे कि बोस को स्वीकार्यता, न सिर्फ कांग्रेस में, बल्कि पूरे देश में भी मिल रही थी. नेहरू की राजनैतिक महत्वकांक्षा, बोस के बढ़ते कद से चोटिल हो गयी थी, जो बाद में शत्रुवत हो गयी. 1939 के शुरू में नेहरू विदेश से लौटे और गांधी के साथ बोस के खिलाफ मुहिम में जुड़ गए थे.
[सुभाष जन्मोत्सव 3 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
4. बोस को कांग्रेस में पराजित करे बिना और कांग्रेस निकाले बिना, नेहरू को अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरी होने पर संदेह था, इसलिए नेहरू के लिए बोस की राजनैतिक हत्या करना अनिवार्यता थी, जिसके लिए ब्रिटिश सरकार की पूर्ण सहमति थी.
5. 30 के दशक में वामपंथी सोवियत रूस, जो कि सोशलिस्ट राज्य कहलाता था (Russian Soviet Federative Socialist Republic), इस काल में यूरोप और पाश्चात्य देशों के उपनिवेशों में नए उभरते नेताओं को अपने प्रभाव में लाने के लिए हर तरह से मदद करता था और उनके इर्द गिर्द वामपंथियों को बुद्धिजीवी का आवरण पहना कर सहयोगी बनवाता था.
[सुभाष जन्मोत्सव 4 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
यहां एक बात और सामने आती है कि सुभाष चन्द्र बोस जहां पूर्ण रूप से राष्ट्रवादी थे, वहीं नेहरू पूरी तरह सोशलिस्ट और वामपंथ के प्रभाव में थे.
अब मैं आता हूँ अपने मूल लेख पर, जहाँ मैं सिर्फ एक नाम लूंगा (पूरा लिखूंगा तो लेख बहुत बड़ा हो जायेगा) जो सुभाष चन्द्र बोस के सहयोगी थे लेकिन वो असल में वामपंथी थे और उनको नेहरू ने प्रधानमंत्री पद पर रह कर, सहयोग के एवज़ में, पुरस्कृत किया था. यहां यह जरूर याद रखियेगा कि भारत की स्वतंत्रता के एग्रीमेंट में एक शर्त लार्ड माउंटबैटन की संस्तुति पर जवाहरलाल नेहरू ने स्वीकार की थी कि स्वतंत्र भारत की फ़ौज में, आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों को शामिल नहीं किया जायेगा और न ही उन्हें स्वतंत्रता सेनानी माना जायेगा.
[सुभाष जन्मोत्सव 5 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
ए सी एन नाम्बियार का नाम किसी ने सुना है?
ये मूलतः केरल के रहने वाले थे. जब यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तब वो एक वामपंथी पत्रकार के हैसियत से वहां काम कर रहे थे. जनवरी 1942 में जब सुभाष चन्द्र बोस ने बर्लिन में भारत की आज़ादी के लिए फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की थी तब नाम्बियार नंबर दो की हैसियत से उनसे जुड़े थे.
जर्मनी में नाम्बियार, बोस के प्रमुख सहयोगी थे. जब बोस पनडुब्बी से जर्मनी से गए तब नाम्बियार को, बोस ने जर्मनी का इंचार्ज बना दिया था. मार्च 1944 में नाम्बियार, सुभाष चन्द्र बोस की अंतरिम सरकार में मिनिस्टर ऑफ़ स्टेट, बनाये गए थे. युद्धोपरांत नाम्बियार शत्रु राष्ट्रों से सहयोग के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए थे लेकिन रहस्यमयी ढंग से वो स्विट्ज़रलैंड निकल भागे थे.
[सुभाष जन्मोत्सव 6 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी]
ये पढ़ के आपको यह तो अंदाज़ हो ही गया होगा कि ए सी एन नाम्बियार, सुभाष चन्द्र बोस के ख़ास सहयोगी थे. अब ऐसे आदमी में नेहरू की दिलचस्पी तो नहीं होनी चाहिए थी लेकिन उन्होंने बेहद दिलचस्पी दिखाई और यह बात, मेरे तो समझ में नहीं आती है. भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने इस व्यक्ति के आगे की जीवन यात्रा को पूरी तरह से ही छुपा दिया है.
अब आगे वो बताता हूँ, जो छिपा है –
नाम्बियार को स्वतंत्रता से पूर्व नेहरू की अंतरिम सरकार ने ब्रिटिश सरकार के विरोध के बाद भी भारतीय पासपोर्ट दिया था. यही नहीं स्विट्ज़रलैंड में भारतीय दूतावास में एक राजनयिक की हैसियत से नियुक्त किया था. उन्हें फिर स्कैंडेनेविया का राजदूत बनाया गया था.
फिर उसके बाद 1951 में तब के वामपंथी राष्ट्र पूर्वी जर्मनी में भारत के वो पहले राजदूत नियुक्त किये गए थे. यही सिर्फ नही, 1958 में भारत की सरकार ने ए सी एन नाम्बियार को पद्म भूषण से सम्मानित भी किया था.
जवाहरलाल नेहरू का यह विशेष अनुराग जो ए सी एन नाम्बियार से था, वो बेहद चौकाने वाली बात है. सुभाष चन्द्र बोस के सहयोगी को इस तरह से पुरस्कृत करना बहुत कुछ कहता है, जो आगे कही बातों से स्पष्ट हो जायेगा.
2014 में ब्रिटिश सरकार ने कुछ गोपनीय दस्तावेज़ो को 30 साल बाद सार्वजनिक किया तब यह तथ्य सामने आया कि-
भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मित्र और भारतीय राजदूत ए सी एन नाम्बियार, असल में सोवियत रूस के जासूस थे. 20 और 30 के दशक में भारतीय कम्युनिस्टों के सक्रिय सहयोगी थे और 1929 में सोवियत रूस के मेहमान बन कर यात्रा भी की थी.
1959 में एक सोवियत रूस के जासूस ने, जिसने सोवियत रूस से पलायन कर के इंग्लॅण्ड में पनाह ली थी, अपने बयान में कहा है, ए सी एन नाम्बियार 1920 के दशक से ही सोवियत रूस की गुप्तचर संस्था Main Intelligence Directorate जिसे GRU भी कहा जाता है, के लिए जासूसी का काम करते थे.
यही नहीं, उन गुप्त दस्तावेज़ों में डायरेक्टर जनरल ऑफ़ ब्रिटिश इंटेलिजेंस की तरफ से एक नोट है जिस पर वी डब्लू स्मिथ लिखते है कि ए सी एन नाम्बियार, पंडित नेहरू के काफी करीबी है और उनको, उनकी (ए सी एन नाम्बियार) की सारी हकीकत मालूम है.
ऊपर कही बातें सिर्फ एक तरफ इशारा कर रही है और वह यह कि-
जवाहरलाल नेहरू की कोई नस सोवियत रूस में दबी थी. या तो, नेहरू के यूरोप प्रवास के दौरान सोवियत रूस से, उनके ‘नाम्बियार’ जैसे कुछ संबंध बन गए थे या फिर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी सुभाष चन्द्र बोस को लेकर सोवियत रूस एक अहम भूमिका निभा रहा था और इसकी कीमत, नेहरू ने सोवियत रूस के वामपंथी समर्थकों को, भारत के विभिन्न तंत्रों में, प्रतिस्थापित कर के दी थी.