अगर वामपंथ की बात करें तो वो तानाशाही में यकीन करने वाली व्यवस्था है. लोकतंत्र में इस विचारधारा का कोई विश्वास नहीं होता. भारत में आकर इस विचारधारा में कई “संशोधन” हुए हैं. इन्ही संशोधनों के तहत बंगाल में तीन दशकों तक वामपंथी शासन रहा.
पूरे विश्व पर गौर करेंगे तो आपको दिखेगा कि इतने लम्बे समय तक चुनी हुई लोकतान्त्रिक वामपंथी सरकार कभी कहीं नहीं रही है. भारत में ऐसा शायद कांग्रेस के प्रभाव के कारण हो पाया.
अगर बंगाल में वामपंथ के उभरने का 60 के दशक वाला इतिहास देखेंगे तो आपको नजर आएगा कि ये एक सशस्त्र आन्दोलन के तौर पर ही उभरा था. उस दौर के कानू सान्याल जैसे नेताओं को बाद में वामपंथियों ने पहचानने से इनकार कर दिया.
जब कानू सान्याल सत्तर के दशक में जेल में थे तभी उन्होंने वामपंथियों की नीतियों को कोसना शुरू कर दिया था. उनके जेल जाने पर व्यापक दंगे हुए थे, लेकिन बाद में उनका कहना था कि बिना जनाधार के ही वामपंथियों ने सशस्त्र कारवाही की जो योजनायें बनायीं वो गलत थीं.
मोहभंग से उपजे ऐसे बयानों का नतीजा ये हुआ की उनके द्वारा ही बनायीं गयी पार्टियों में उन्हें Unperson कर दिया गया.
ये वामपंथियों की एक पुरानी परंपरा होती है जिसमें इंसान को पहचानने से इनकार कर दिया जाता. बिरादरी से बाहर करना, या हुक्का-पानी बंद का व्यापक रूप.
अंततः नक्सलबाड़ी से नक्सलवाद को जन्म देने वाले कानू सान्याल ने अपने ही घर में आत्महत्या कर ली थी.
इन तीन दशकों के वामपंथी बंगाल में जनता का क्या हुआ वो किसी से छुपा नहीं है. बंगाल में शरणार्थियों को घेर कर गोली मारी गई. मरिछझापि का नरसंहार एक ऐसा काला सच है जिसे सात पर्दों में भी ढका नहीं जा सकता.
नन्नूर में सीपीआई (एम) के आतंकी कामरेडों ने कई अल्पसंख्यकों को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने उचित मजदूरी मांग ली थी. इन अल्पसंख्यकों की हत्या के बाद उसी इलाके के सांसद सोमनाथ चटर्जी का संसद में बयान आया था कि वो डाकू थे जिन्हें गाँव वालों ने मार दिया.
बेशक कामरेड! जमींदार से अपनी मजदूरी मांगने वाला डाकू ही होगा!
पूंजीपतियों के गोद में बैठे कामरेडों ने बंगाल को ऐसी दशा में पहुंचा दिया है जहाँ मजदूर की दैनिक आय इतनी भी नहीं कि वो दो रुपये से ज्यादा का चावल ख़रीद सके.
बंगालियों को मज़ाक में कहा जाने वाला “माछ-भात” एक कटु व्यंग बन गया है. एक गरीब बंगाली की स्थिति कई बार “नून-भात” की भी नहीं होती.
अगर आपने टिन का चश्मा ना लगा रखा हो तो इसे देखने के लिए आपको कहीं दूर दराज के गाँव में भी नहीं जाना होगा. ये स्थिति आप बीच कोलकाता में देख सकते हैं.
कामरेडों के बाद आई मोमता दीदी की सरकार ने बस एक मोर्चे पर सफलता दिखाई है. पहले जहाँ ग्रिल, दीवारें, बोर्ड सब लाल रंगे हुए होते थे वो अब सफ़ेद और नीले रंग में पुते दिखाई देते हैं.
भूख से बेरंग हो गए बंगाली मजदूर का चेहरा पहले भी हेमोग्लोबिन की कमी से लाल तो नहीं ही था. अब कहीं लाचारी की सफेदी पुत गई है तो कहीं तथाकथित बुद्धिजीवियों के जहर से उनका रंग नीला पड़ा दिखाई देता है.
व्यवस्था पिछले 4 – 5 सालों में बदल नहीं गई है. बस उन्ही पुराने लोगों ने हुलिया बदल लिया है. कल हुई दुर्घटना सिर्फ कल की बात नहीं है.
ये उन नियम-कानूनों की परिणिति है जिसने हाथ से खींचे जाने वाले अमानवीय रिक्शा को जिन्दा रखा है. ये उन्हीं फैसलों का नतीजा है जिसने धीमे चलने वाले obsolete, अप्रचलित यातायात के साधन ट्राम को कोलकाता शहर से हटने नहीं दिया.
ये एक शहर को नियमों के बदले भीड़-तंत्र से चलाने की नीतियों का नतीजा है. ये जो पुल के नीचे दबे वो कोई वर्ग शत्रु नहीं था साथी. ये वो बेघर मजदूर थे जो अपना घर छोड़कर एक बड़े शहर में चार पैसे कमाने आये थे.
कुचली हुई जो एक लाश निकलती है, वो सिर्फ एक शव नहीं है. पिछले ही साल की बाढ़ में आसनसोल से कोलकाता तक जो किसान अपनी खेती से वंचित हुए होंगे ये वही लोग थे. उसके पीछे उसके घर पर उसके चार पैसे कमा कर लौटने का इंतज़ार करता पूरा परिवार है साथी.
कई राज्यों में ब्लैकलिस्ट हो चुकी एक कंपनी को भीड़ भरे शहर में एक फ्लाईओवर बनाने का ठेका देने वालों को भी हिसाब देना होगा. मजदूरों के खून से अपना झंडा और कितना लाल करोगे? ये आपकी ही तीस साल की बनाई इमारतें ढह रही है.
आप अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बंगाल के दो अकाल बेच चुके हैं साथी, बिना विकास के बंगाल मॉडल से तलाक़ लिए आपको विकास के गुजरात मॉडल से निकाह कैसे करने दें?