आप मॉल जैसी जगहों पर गए होंगे, वो एस्केलेटर भी देखा ही होगा आपने. वही स्वचालित सीढ़ी जैसी चीज़ जो अपने आप ऊपर या नीचे जा रही होती है. देखी है? फिर ठीक है, चलिए अब काम की बात पर आते हैं |
राष्ट्र क्या है? कोई व्यक्ति है? चीज़ है? उसे छूकर, सूंघ कर, चख कर, किसी तरह से महसूस कर सकते हैं क्या?
नहीं ना! राष्ट्र एक अवधारणा है, एक कंसेप्ट. जैसे जैसे देश में मौजूद एक पीढ़ी आगे बढती है और दूसरी पीढ़ी को जगह मिलती है उसी के साथ ये भी बदलती रहती है.
सोच के साथ-साथ आगे चलेगी, विरोधाभास होंगे, टकराव भी होंगे. इन सब के साथ परिवर्तन जारी रहेगा. सिर्फ आजादी के समय को देख लें तो नजर आ जायेगा कि जो देश अहिंसा की पैरोकारी करता दिखता था उसने क्या किया?
गोवा को आज़ाद करवाने के लिए कोई अहिंसात्मक, गांधीवादी प्रदर्शन नहीं हुए थे. पांडिचेरी, या दमन दिव जैसी जगहें भी सत्याग्रह से नहीं छुड़ाई गई थीं. और तो और, जब पटेल को हैदराबाद लेना था तो निज़ाम के दरवाजे पर कोई कांग्रेसी धरने पर नहीं बैठा था. सीधा लट्ठ चला था.
अब ज़रा जाति को देखिये. किसी पच्चीस साल के लड़के से पूछने पर, आज वो अगर ओबीसी बताता है तो 25 साल बाद क्या बताएगा? जाहिर है जैसे पिछले 70 साल में SC/ ST बिलकुल भी नहीं बदला… आज भी अनुसूचित जाति ही है, वैसे ही बाकि सबकी जाति भी एक फिक्स्ड, रुकी हुई चीज़ है. बिलकुल भी नहीं बदलती.
ऐसे ही राजनैतिक विचारधारा को देखिये. कांग्रेस की विचारधारा बदली है क्या? बीजेपी ने हिंदुत्व की अपनी अवधारणा में कोई परिवर्तन किया है क्या? वामपंथियों की तथाकथित विचारधारा कितनी बदल गई है? ये सब भी अटकी हुई, स्थायी रहने वाली चीज़ें हैं.
अब जरा क्षेत्रवाद को देखिये. उत्तर-पूर्व के लोगों को चिंकी बुलाना छोड़ा किसी ने? बिहार-उत्तर प्रदेश के भैया जी को अनपढ़ मूर्ख मानना छोड़ा? दक्षिण की श्रीदेवी, रेखा, जैसों को बरसों देखने के बाद दक्षिण भारतीय लोगों के लिए क्या धारणा है मन में? मतलब क्षेत्रवाद भी रुकी हुई चीज़ है.
भाषा की क्या स्थिति होती है? लिखने-बोलने के तरीकों में कितना परिवर्तन आया है? जैसे हम “फिक्स्ड” यानि एक अंग्रेजी के शब्द को हिंदी में इस्तेमाल कर रहे हैं, देवनागरी में लिख डाला है, उस से कितने शुद्धतावादी सहमत होंगे? “बहता पानी निर्मला…” जैसी कहावतों के बावजूद हम हिंदी साहित्यकारों में इसके लिए समर्थन नहीं जुटा सकते.
अब वापिस आते हैं एस्केलेटर पर. एक पांव जमीन पर और एक चलते हुए एस्केलेटर पर रखेंगे तो क्या होगा? इसके अलावा आपने कई बार नए लोगों को एस्केलेटर पर पांव रखने में डरते, हिचकिचाते भी देखा होगा.
लगातार आगे बढ़ती, बदलती, ऊपर-नीचे जाती हुई चीज़ के साथ चल देने में डर भी लगता है. इसमें कोई शर्माने की भी बात नहीं, क्योंकि “डर के आगे… जीत है!”
एक साथ आप जातिवादी और राष्ट्रवादी नहीं हो सकते. एक साथ क्षेत्रवादी और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते. एक साथ भाषा-वादी और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते. एक साथ राजनैतिक पार्टी के समर्थक और राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते.
बाकि एस्केलेटर पर पांव रखना है या फिर परिवर्तन की हलचल के बदले जमीन पर टिके रहना है, ये फैसला आप खुद कीजिये.