9 फरवरी के बाद से दो महत्वपूर्ण समाचार सुर्खियां बटोर रहे हैं. एक तरफ शहीद हनुमंथप्पा की और उनके साथ नौ शहीदों की शहादत का समाचार और दूसरी तरफ दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे कुछ विद्यार्थियों का प्रदर्शन.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए प्रदर्शन में अलग अलग बयान दिये जा रहे हैं. कहीं ऐसा माना जा रहा है कि व्यक्ति की अभिव्यक्ति को रोका जा है और कहीं पर यह कहा जा रहा है कि राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ हो रही हैं. कुछ इसे देश विरोधियों की शरारत और कुछ इसे राजनैतिक दलों का खेल कह रहे हैं.
परन्तु मेरे विचार से प्रश्न इससे बड़ा है. वहाँ जो कुछ भी हुआ है वह तो मात्र उसका एक प्रतिबिंब है. असली कहानी उससे भी गहरी और सोचने के लिए हैं.
राजनीतिक गलियारों में यह भी कहा गया है कि छात्र innocent या मासूम हैं, इन्हें फंसाया जा रहा है औए फँसाने वाले किसी दूसरे गुट के छात्र हैं.
पहली बात तो यह है कि 18 वर्ष के नौजवान को आप देश की सरकार चुनने का संवैधानिक अधिकार देते हैं यह मान कर कि उस उम्र तक लोग देश की समझ रख चुके होते हैं. तो कोई उन्हे बहका कैसे सकता है. इसका अर्थ जो कुछ भी हुआ वह सब सहमति से हुआ है.
अब प्रश्न इससे बड़ा है कि इन छात्रों ने यह क्यों किया और इससे क्या हासिल होगा? यह तो सब मानते है कि जो हुआ वह गलत हुआ. हमारी युवा पीढ़ी जानबूझ कर सोच समझ कर कुछ गलत कर रही है. यह सबसे बड़ी चिंता की बात है. यह पीढ़ी भी जानती है कि जो हो रहा है वह राष्ट्र विरोधी हो रहा है.
सबसे बड़ा दुर्भाग्य मुझे लगता है कि 69 वर्षों मे अपने पाठ्यक्रम से कुछ भी देश प्रेम का भाव पैदा नहीं करते हैं. हमारी शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम ही आज व्यक्ति को स्वयं के लिए केन्द्रित बना रहा है. जब व्यक्ति के लिए जीता है तो क्या राष्ट्र और क्या मानवता!
माना 18–20 वर्ष के छात्रों को देश विरोधी या कुछ राजनैतिक शक्तियाँ अपना मोहरा बना रही हैं, परन्तु 12 वर्षों का देश का पाठ्यक्रम क्या उनके देशभक्त नहीं बना सका. यह हमारे शिक्षा तंत्र कि बड़ी हार है. इस पर विचार करने की बहुत आवश्यकता है.
साथ में ही हमारे आज के अध्यापक और शिक्षक भी सिर्फ पैसा कमाने के लिए पढ़ा रहे हैं, वह यह नहीं समझते कि राष्ट्र निर्माण का बड़ा काम उनके हाथों से हो रहा है. अब क्योंकि उन्हे अपने व्यवसाय को मात्र धन से सोचना है. उनकी सोच भी सीमित हैं.
अब रही बात अभिभावकों कि और समाज की. सभी अभिभावक अपने बच्चों को मात्र अंक दिलवा कर अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़ाना चाहते हैं. इसी उम्मीद में कि अब बेटा या बेटी पढ़ कर अच्छा धन कमाने लगेंगे और उनका जीवन सुखी हो जाएगा.
परन्तु यदि राष्ट्र ही सुखी और सुरक्षित नहीं है तो व्यक्ति कैसे होगा. समाज और शिक्षकों पर इसका दायित्व बढ़ जाता है. आवश्यकता है कि हर पाठ्यक्रम बनाने से पहले यह विचार किया जाये कि क्या विद्यार्थी इससे राष्ट्र प्रेमी बनेगा या नहीं. यदि नहीं तो आमूल परिवर्तन की आवश्यकता हैं.
अब रही बात अभिव्यक्ति की आज़ादी की. यह हर भारतीय का अधिकार है जो संविधान ने अनुछेद 14 से 32 में दिया है. परन्तु साथ ही संविधान ने हर भारतीय को कुछ कर्तव्य निर्वहन करने को कहा है. जो संविधान के अनुछेद 51 A में हैं.
आप अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम आप अपनी मां को गाली देते हैं तो क्या इसे आपका अधिकार समझा जाये. हर भारतीय को अभिव्यक्ति के साथ मर्यादा भी सीखनी चाहिए.
यह प्रश्न एक विश्वविद्यालय का नहीं है. किसी विश्वविध्यालय से पहले आज प्रश्न राष्ट्र का है. उस राष्ट्र का जिसका कि यह विश्वविद्यालय मात्र एक अंग है.
हिमालय से समुद्र पर्यंत भारत एक है. भले ही देश के कुछ राज्यों से हमें कुछ प्राप्त न हो. आज आवश्यकता देश और राष्ट्र की एकता का है. इस गौरव को बनाने में शिक्षकों की ही प्रमुख भूमिका है.
शिक्षक का गौरव तभी है जब राष्ट्र गौरवशाली होगा और राष्ट्र गौरवशाली तभी है जब राष्ट्र अपनी परम्पराओं और जीवन मूल्यों का निर्वाह करने में सक्षम होगा.
यह संभव तभी होगा जब शिक्षक अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में सक्षम होगा. शिक्षक सफल होगा जब प्रत्येक छात्र मे राष्ट्र भाव भरने में सफल होगा. यदि व्यक्ति में राष्ट्र भाव नहीं है तो यह राष्ट्र की पराजय है.
आज पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने की आवश्यकता है और वह सूत्र राष्ट्रीयता ही हो सकता हैं. देश की विघटनकारी तमाशा बनाने वाली विदेशी शक्तियों को आज उत्तर देने का समय आ गया है.
इतिहास साक्षी है कि शस्त्र की अपेक्षा शास्त्र की रक्षा न कर पाने से राष्ट्र पराजित हुआ है. शस्त्र और शास्त्र को धारण करने वालों में यदि राष्ट्रीयता नहीं हुई तो देश खण्ड खण्ड बिखर जाएगा.
प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना आवश्यक है कि यदि राष्ट्र की उपासना में आस्था नहीं है तो उपासना के अन्य मार्ग भी बंद हो जाएंगे. व्यक्ति से समाज, समाज से राष्ट्र के एकीकरण का एक मात्र मार्ग राष्ट्रीयता ही हो सकता है.
यह सत्य है कि शिक्षक का शस्त्र शास्त्र ही है, परन्तु यदि राष्ट्रविरोधी स्वर उभर आयें तो शिक्षक उन्हे अपने सामर्थ्य का परिचय अवश्य दे. सामर्थ्यहीन शिक्षक अपने शास्त्रों की भी रक्षा नहीं कर पाएगा.
यदि आवश्यक हो तो शिक्षक को सत्ताओं और राष्ट्र में से राष्ट्र ही चुनना है. सत्ताओं से राष्ट्र महत्वपूर्ण है. राष्ट्र की वेदी पर यदि सत्ताओं की आहुति देनी पड़े तो भी शिक्षक संकोच न करे.
इतिहास साक्षी है कि सत्ता और राजनीति ने हमेशा इस राष्ट्र का अहित किया है. विजय निश्चित है आवश्यकता है तो मात्र निश्चित संकल्प की.