ये किस्सा न जाने कितनी बार कह चुका हूँ पर न जाने क्यों फिर फिर कहने का मन करता है.
और हर बार नया ही आनंद मिलता है….. शायद वही, जो किसी गवैये को मिलता होगा बार-बार, हर बार वही राग गा के…..
मिर्ज़ा साहब मुफलिसी में जी रहे थे दिल्ली में….. तमाम दिल्ली के कर्ज़दार हो के….. किसी ने एक बार पूछा, कैसे चुकायेंगे मिर्ज़ा दिल्ली का कर्ज़……
जवाब देने वाले ने कहा …… मिर्ज़ा तो जैसे तैसे चुका भी देंगे क़र्ज़ …… ये बताओ दिल्ली कैसे चुकाएगी मिर्ज़ा का क़र्ज़…..
तो एक मित्र थे मिर्ज़ा के. चिंतित रहते थे उनके लिए. एक दिन हवेली में पधारे तो बोले….. दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी के प्रवक्ता का पद खाली है. प्रिंसिपल से बात कर ली है आपके लिए….. सुबह चले जाइएगा.
अगली शाम मित्रवर फिर पधारे.
क्यों? गए थे?
हाँ, गए तो थे….
फिर?
लौट आये…
क्यों? क्या हुआ?
अमां, गेट से ही लौट आये…
क्यों?
गेट पर कोई अगवानी करने नहीं आया….
मिर्ज़ा! नौकरी करने गए थे…..
नहीं…. फ़ारसी के विद्वान् के हैसियत से गया था
नौकरी इसलिए करनी है कि इज्ज़त में इजाफा हो…. इसलिए नहीं कि जो रही-सही है वो भी चली जाए.