देश को हक़ है जानने का, किन गद्दारों की वजह से भारत नहीं लौट सके नेताजी

यह संभव है कि 1945 मेँ नेताजी ने विमान दुर्घटना और अपनी मौत की खबर स्वयं फैलाई हो ताकि अंग्रेजो को चकमा दिया जा सके.

विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी रूस जाना चाहते थे. यह बात उन्होंने अपने करीबियों को बताई थी और जापानियों से अपने मंचूरिया जाने का प्रबंध करने को कहा था.

संभवतः नेताजी उस विमान में बैठे ही नहीं जिसकी दुर्घटना की बात कही जाती है, और ऐसी कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं।

नेताजी की मृत्यु पर बने सभी सरकारी जांच आयोगों ने सही तरह से जांच किये बगैर वही निष्कर्ष दे दिया जो सरकार चाहती थी. सरकारी ढोल बजाने वाले इन जांच आयोगों ने देश की जनता से विश्वासघात किया.

संभवतः अपनी मौत की खबर फैला कर ताईपेह से नेताजी मंचूरिया गए. अभी मंचूरिया चीन का प्रान्त है मगर उन दिनों यह रूस का अंग था. नेताजी को भरोसा था कि रूस की साम्यवादी सरकार उनको साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए सहायता देगी.

मंचूरिया पहुचकर नेताजी मास्को गए वहां स्टालिन ने विश्वासघात किया और नेहरू के कहने पर नेताजी को गिरफ्तार कर साइबेरिया की जेल में रखा.

1952 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रूस में भारत के राजदूत थे. उनको किसी रूसी अधिकारी ने बताया कि आपके नेताजी हमारी जेल में है. नेताजी को किसी अन्य नाम से जेल में रखा गया था.

राधाकृष्णन को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ उन्होंने स्वयं नेताजी को देखने की इच्छा व्यक्त की. राधाकृष्णन साइबेरिया गए. वहां उन्होंने दूर से नेताजी को देखा.

डॉ राधाकृष्णन ने रूसी अधिकारियों से बात कर उनको पृथक सेल में रखने और दो सहायक तथा अन्य सुविधाएं दिए जाने की व्यवस्था की.

मास्को आकर डॉ राधाकृष्णन ने नेताजी की रिहाई हेतु नेहरूजी से बात की. नेहरूजी ने डॉ राधाकृष्णन को चुप रहने को कहा और उनको भारत बुला कर उपराष्ट्रपति (बाद में राष्ट्रपति) बनवा दिया.

लालबहादुर शास्त्री जब विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बने तब गोपनीय फाइलों द्वारा उनको नेताजी के रूस में होने का पता चला.

1968 में ताशकंद रूस में लालबहादुर शास्री नेताजी की रिहाई कराने का प्रयास कर रहे थे तभी उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी और नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री बन गयी.

इसके बदले KGB (रूसी खुफिया एजेंसी) को भारत में कार्य करने की अनुमति और रूस को अयस्क निकलने की अनुमति और सोवियत विचारधारा के प्रचार तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को फंडिंग की अनुमति आदि मिली. शास्त्री जी की मौत का सुभाष चंद्र बोस की रिहाई से गहरा सम्बन्ध है.

अगर नेताजी भारत आ जाते तो उन्हें छुप कर रहने की जरूरत न पड़ती, पूरा देश उनका साथ देता और द्वितीय विश्व युद्ध के अपराधियों को पकड़ कर इंग्लैंड के सुपुर्द करने की संधि किसी काम न आती. इसलिए फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा वाली बात सही नहीं हो सकती.

मेरे गुरु डॉ एम पी चौरसिया अनेक वर्षों तक रूस में रहे. 1958 में जब वे मास्को पावर इंस्टिट्यूट में कार्यरत थे, तब उन्हें एक रूसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने बताया कि वह साइबेरिया ट्रांसमिशन लाइन में कार्यरत था.

उसने डॉ चौरसिया को बताया कि वहां कोई भारतीय रहता है जिसे एक कोठी, घोड़े तथा नौकर मिले हुए हैं. उस भारतीय को साइबेरिया के उस गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है. इसकी निगरानी वहां की पुलिस करती है.

डॉ चौरसिया का मानना था कि वह भारतीय सुभाष चंद्र बोस ही है. यह डॉ चौरसिया ने मुझे 1984 में बताया था.

नेताजी, हो ची मिन्ह के सम्पर्क में थे. हो ची मिन्ह, नेताजी से मार्गदर्शन लेते थे. यह कहा जाता है कि विमान दुर्घटना के अगले दिन नेताजी वियतनाम की राजधानी में थे.

यह भी हो सकता है कि नेताजी के कहने पर हो ची मिन्ह ने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए यह खबर रची हो. या फिर नेताजी वियतनाम से मंचूरिया के लिए रवाना हुए हों.

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बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर के रेडियो सहायक मि. कार ने 19 दिसंबर 1945 को सुना और नोट किया नेताजी का रेडियो संदेश

यह भी कहा जाता है कि 1962 में वियतनाम-अमेरीका युद्ध के समय नेताजी वियतनाम में थे और परदे के पीछे युद्ध सञ्चालन करवा रहे थे. क्या रूस की सरकार ने नेताजी को वहाँ जाने की अनुमति दी होगी?

पी वी नरसिंम्हा राव जब प्रधानमंत्री थे तब वे वियतनाम गए थे. वियतनामी सरकार ने उन्हें कुछ कागजात सौपे जो 1945 और 1962 में नेताजी की वियतनाम में उपस्थिति से संबंधित थे. ऐसा वियतनाम सरकार के रिकॉर्ड में है. नरसिंम्हा राव ने मौन साधा, उन कागज़ातों का क्या किया किसी को पता नहीं.

यह भी बताया जाता है कि नेताजी 1959 में तिब्बत में एकनाथ लामा के रूप में रहे. एकनाथ लामा को बंगला, हिंदी, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी भाषाओँ का अच्छा ज्ञान था.

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एकनाथ लामा

चीन की ख़ुफ़िया एजेंसी को शक हुआ कि ये सुभाष चन्द्र बोस है. उनको गिरफ्तार कर पेकिंग लाया गया और पूरी पड़ताल की गयी.

चीनी सरकार की जाँच के अनुसार ये व्यक्ति तिब्ब्त के यातुंग जिले के किसी गांव का रहने वाला निकला. यह जिला सिक्किम से लगा हुआ है. एकनाथ लामा का पूर्व का कोई तिब्बती नाम है. ये किशोरावस्था में बोधगया आ गये थे जहाँ जापानी भिक्षुओं के साथ रह कर बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करते थे. ये सारनाथ, लुम्बिनी (नेपाल), बंगाल में भी कुछ समय रहे.

उन दिनों भारत में ‘सिद्धार्थ’ के जर्मन लेखक हरमन हेस भी थे. एकनाथ उनके साथ भी रहे. अपना अध्ययन समाप्त कर 40 वर्ष की उम्र में एकनाथ ल्हासा गए, वहाँ एक मोनेस्ट्री में लामा हो गए।

यह रिपोर्ट चीन की सरकार ने ब्रिटिश सरकार को भेजी थी और एकनाथ लामा के सुभाष चंद्र बोस होने की सम्भावना से इंकार किया. जांच के बाद एकनाथ को छोड़ दिया और उन्होंने शेष जीवन ल्हासा में लामा के रूप में कार्य किया.

नेताजी के बारे में यह भी अटकल लगाई जाती है कि वे साधु बन कर छुप कर रहे. नेताजी अगर भारत में थे तो उनको छुप कर रहने की कोई जरूरत ही नहीं थी. जिस व्यक्ति को दमनकारी अंग्रेज हुकूमत नहीं डरा सकी, क्या वह नेहरू और उनके वंशजों से डरेगा!

अनेक साधु बाबाओं के नेताजी होने की अटकले लगाई जाती रहीं. इनमें प्रमुख हैं – बाबा हनुमान गिरी, श्रद्धानंद, मौनी बाबा सीतापुर उप्र, भगवानजी गुमनामी बाबा फैज़ाबाद उप्र, ज्योतिर्देव बाबा शिवपुरी मप्र, कम्बोडिया का बौद्ध भिक्षु, काबुल का जियाउद्दीन पीर आदि. इन बाबाओं के नेताजी होने की थ्योरी में कोई दम नहीं.

सत्य जो भी हो, हर देशवासी को पूरा अधिकार है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानने का और उन ग़द्दारों के बारे में भी जानने का जिनकी वजह से नेताजी आजादी के बाद भी अपने देश नहीं आ सके.

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